इस तरह कभी तुमने सांझ को ढलते देखा है। दूर कहीं आसमां के तले जिंदगी को मिलते देखा है॥ चेहरे की झुर्रियाँ बताती हैं हमें कि उम्र को रफ्ता-रफ्ता ढलते देखा है। कचनार की शाखों से पूछो तो जरा, उसने कभी गुंचों को टूटते देखा है॥ उस वक्त वो था […]
shreevastav
स्वतंत्र-संस्थानों के कानून- वारांगणानों के हाव भाव- दोनों में है कितनी समानता- कितना मिलाव। चाँदी की चमक के माप पर बदलते भाव,वारा-कन्याओं के- मालिकों के लाभ-हानि के माप पर, बदलते कानून-स्वतंत्र संस्थाओं के। ज्यों हो कोई संगीत कुर्सी का खेल- रुक जाता है संगीत, बजते-बजते। खिलाड़ी हो जाते विवश- चलते-चलते। […]