बेटी तुम बेटी ही रहो 

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आधुनिक युग की चादर तूने ओढ़ी है बेटी
परंपरा से चली आ रही बेटी की मर्यादा लाँघि है –
बेटे भी शर्मा रहे है ,
मजबूर हो रहे है –
तेरे स्वार्थ के आगे ।
जब तुम बाबुल के घर आती हो ,
कितनी खुश हो जाती हो –
भाभी ने दिया माँ को उल्टा उत्तर तुम्हे बर्दाश्त नहीं होता ।
माता- पिता से इतना प्यार देख ,
आँखों से पानी निकलता है
पर
बेटी !
तुम भी तो उनके घर की बहु हो
फिर क्यों उन माता – पिता से –
उनके लाल को अलग कर रही हो ।
बेटों के स्वार्थ के पीछे ,
मंथरा की राजनीती –
तुम्हारी ही तो होती है ।
बदनामी का सेहरा ,
नालायक बेटा कहकर लगता है –
तुम तो अपना आंचल झटक देती हो   ।
आखिर !
बेटी किसी ki  बहु बने तो ,
मंथरा हो जाती है –
नहीं तो केवल बेटी ही रहने से
अपनी प्यारी बेटियां प्यारी लगती है  ।
                                    #अजित कुमार

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डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

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