“मातृभूमि की पुकार”

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krishna rb
कैसी थी कैसे खींचतान हो गई,
मैं अब वीरों से
वीरान हो गई ।
थी खुशियों की बौछार जहाँ,
अब देखो खुला
मैदान हो गई ॥
देख मानव का मानव से नृसंहार,
लो मैं अब
श्मशान हो गई ॥
कैसी थी कैसे खींचतान हो गई,
मैं अब वीरों से
वीरान हो गई ॥
जिन वीरों ने मुझे श्रृंगार दिया,
क्या अब उन वीरों की
रात हो गई ॥
खेल रहे इज्जत से बेशर्म लुटेरे,
लो ये लूट अब मैंरे
साथ हो गई ॥
कैसी थी कैसे खींचतान हो गई,
मैं अब वीरों से
वीरान हो गई ॥
देखी आज जो मैंरी हालत,
इत्तिहास की आँखे
शूल हो गई ॥
किस पर मैं कैसे विश्वास करुँ
विश्वास की रोशनी
दूर हो गई ॥
कैसी थी कैसे खींचतान हो गई,
मैं अब वीरों से
वीरान हो गई ॥
जो आशा इत्तिहास दे गया था
अब वो आशा
विलोप हो गई ॥
शायद अब वक्त रहा नही जीनें का,
देखो वीरों अब मैंरी
मौत हो गई ॥
कैसी थी कैसे खींचतान हो गई,
मैं अब वीरों से
वीरान हो गई ॥
                                    #कृष्णा आर.बी.
                                     झालावाड़(राजस्थान)

Arpan Jain

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One thought on ““मातृभूमि की पुकार”

  1. बहुत अच्छा प्रयास

    लिखते रहो यार

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डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

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