पर्वत की चोटी पर जाकर,
नाकाम होकर लौट आना..
दर्द की दवा ही दर्द का,
हर बार बन जाना।
कोई क्या देगा तुमको ख़ुशी,
जब मुकद्दर में हो..
हर वक्त ही लिखा,
ग़मों का बोझ उठाना।
ईमानदारी का वजूद खुद,
अंधकार में हो जब..
क्या रोशन करेगा किसी का,
राहों में यूँ दीप जलाना।
सीसे की तरह टूटकर भी,
सीखा नहीं था बिखर जाना।
हसरतों का रह-रह कर,
यूँ तड़प-तड़पकर मर जाना।
जिन्दा रहे नाकाम रहे ,
लोगों के लिए अन्जान रहे..
क्या सुकून देगा मुझको
मरने के बाद मशहूर हो जाना।
पथ भी कटीला था,
ज़ख्म बहुत गहरे थे..
मगर सीखा नहीं था मैंने,
हार थककर सो जाना।
पर इम्तहान की हद तो हो,
क्या हर बार सीखता रहूँगा मैं..
तकलीफ से लड़कर,
हदों के पार जाना।
शून्य हो जाता हूँ हर बार,
पर लड़ता रहूंगा..
क्योंकि, सीखा नहीं है मैंने..
नाकामियों से पीठ दिखाना।
ख्वाहिश चाँद बनने की नहीं थी साहब
मैंने तो सीखा है सूरज-सा जलते जाना।
लेखक परिचय :लिखने के लिए मन में अच्छी कल्पना और भाव होने ज्यादा ज़रूरी होते हैं,यही परिचय है योगेन्द्र पिता यशपाल सहरावत जी का। सरधना (जिला मेरठ,उत्तर प्रदेश) निवासी श्री सहरावत मूल रुप से व्यवसाई हैं परंतु सरल लेखनी पर इनकी अच्छी पकड़ है। ज़माने की आपाधापी में कम शिक्षा हासिल करने वाले और पारिवारिक जिम्मेदारियों से लगे होने के बाद भी आप बेहद सुलझे हुए हैं । आपकी यही भावना आपकी रचनाओं का मजबूत पक्ष है कि,दूसरों की ख़ुशी में अपनी खुशी की इच्छा रखिए।