इण्डिया नहीं है भारत की गौरव गाथा…। यह कहना है कन्नड़ भाषी जैनाचार्य विद्यासागर जी महाराज का। समाज में आए भटकाव से हमारी जवान पीढ़ी का ख़ून सोया हुआ है। कविता ऐसी लिखो कि रक्त में संचार हो जाए। इस पीढ़ी का इरादा ‘इण्डिया’ नहीं ‘भारत’ में बदल जाए। वे पहले भारत को याद रखें। भारत याद रहेगा,तो धर्म,संस्कृति की परम्परा याद रहेगी। पूर्वजों ने भारत के भविष्य के लिए क्या सोचा होगा ? उन्होंने इतिहास का मंत्र सौंपा है। वे भारत का गौरव,धरोहर,संस्कृति और परम्परा को अक्षुण्ण चाहते थे। यह बच्चों और युवाओं को समझाना है। ज़िंदगी गुज़रती जा रही है। साधना करो। साधना अभिशाप को भगवान बना देती है। महाराणा प्रताप के प्राणों के बलिदान और स्वाभिमान से प्रेरणा मिलती है।
क्या ‘भारत’ का अनुवाद ‘इण्डिया’ है? इण्डियन का अर्थ क्या है? यह ऑक्सफ़ोर्ड डिक्शनरी से समझ में आ जाएगा। हम भारतीय हैं। यह स्वाभिमान के साथ कहते नहीं हैं,कहना चाहिए। ‘भारत’का कोई अनुवाद नहीं होता। भारत को भारत के रूप में स्वीकार करना चाहिए। आर्यावर्त भारत माना गया है,जिसे ‘इण्डिया’ कहा जा रहा है। ऑक्सफ़ोर्ड डिक्शनरी में इण्डियन का जो अर्थ लिखा गया है,वह आँखें खोलने के लिए पर्याप्त है।
अंग्रेज़ों ने ढाई सौ वर्ष तक राज किया,जिसे हम आँख मीचकर अपनाए चले जा रहे हैं। अपने को ‘इण्डियन’ कहकर हम गर्व महसूस कर रहे हैं। चीन हमसे भी ज़्यादा परतंत्र रहा है। हमसे बाद में स्वतंत्र हुआ। उस चीन के नेता माओ से तुंग ने कहा था-हमें स्वतंत्रता की प्रतीक्षा थी,अब हम स्वतंत्र हो गए हैं। अब हमें सर्वप्रथम अपनी भाषा चीनी अर्थात `मन्दारिनी` को सम्हालना है। परतंत्र अवस्था में हम अपनी भाषा को क़ायम नहीं रख सके थे। माओ ने किसी की नहीं सुनी और देश की पहचान की भाषा चीनी घोषित कर दी थी। कहा-चीन स्वतंत्र हो गया है और हम अपनी प्रिय भाषा चीनी को छोड़ नहीं सकते। भारत में है कोई ऐसा राष्ट्रीय स्वाभिमानी व्यक्ति,जो चीन के समान अपने देश की भाषा को तत्काल प्रारंभ कर दे। कोई भी कठिनाई आ जाए,देश के गौरव और स्वाभिमान को न छोड़े। सत्तर वर्ष हो गए देश की आजादी को,पर हमारी कोई राष्ट्रभाषा तक नहीं है। मातृभाषाएँ अपने अधिकारों से वंचित हैं। विदेशी भाषा अंग्रेज़ी को शिक्षा का माध्यम बनाए रखने की अक्षम्य ग़लती करते जा रहे हैं। जिनको आवश्यकता हो वे दुनिया की भाषाएं ख़ूब सीखें। उनके ज्ञान-विज्ञान से हमारे देश को लाभान्वित करें। विरोध अंग्रेज़ी से नहीं है,किंतु स्वतंत्र राष्ट्र की भाषाओं पर पराई भाषा का वर्चस्व होना असहनीय है। उक्त मंतव्य विद्यासागर मुनि महाराज जी का है। इस २२ सितम्बर को उनके पास रामटेक (महाराष्ट्र) में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद,वहाँ के राज्यपाल, मुख्यमंत्री तथा केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी आए थेl अब हम स्वयं तय करें कि,अपनी भाषाओं की दशा और दिशा देने के लिए संकल्पित होकर क़दम उठाएं।
निर्मल कुमार पाटौदी