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हाय! जल गई अग्नि-ज्वाल में,
पद्मिनी संग सहस्त्रों रानियाँ।
छू नहीं पाया बदन खिलजी,
रही केवल राख निशानियाँ॥
लाज देह देश धरती की,
कुर्बानी देकर बचा लिया।
छल से पकड़ कैद कर राणा,
को खिलजी ने दगा दिया॥
गोरा बादल वीर बांकुरे,
शान थे राजपूताना के।
गढ़ चितौड़ के नर नाहर,
थे सेवक पद्मिनी-राणा के॥
कैदी राजा राणा रतन सिंह,
छूटा कैद गरजे रण में।
केवल जल आहार मास भर,
थी शक्ति बची नहीं तन में॥
जी भर लड़ा समर शूर फिर भी,
भूमि मेवाड़ की ओर चला।
मगर रिपु दल सैन्य अधिक,
प्रबल शत्रु में गया घिरा॥
रतन सिंह वह रतन भूमि का,
दुखद वीर गति को पाया।
आतताई अल्लाउद्दीन ने,
कहर मेवाड़ पर बरपाया॥
लड़े मरे गोरा बादल पर,
आँच किले पर नहीं आई।
सुन राणा की निधन शोकाकुल,
जौहर ज्वाल रानी ने जलवाई॥
कूद पड़ी सब पद्मिनियाँ,
चौदह हजार जल राख बनी।
छू न सका सत्यव्रती का दामन,
भारत गौरव इतिहास बनी॥
चन्द गलतियाँ जयचन्द की,
पड़ा द्वेष-देशद्रोह भारी।
होती आई है अतीत से,
हे भारत तुझसे गद्दारी॥
#विजयकान्त द्विवेदी
परिचय : विजयकान्त द्विवेदी की जन्मतिथि ३१ मई १९५५ और जन्मस्थली बापू की कर्मभूमि चम्पारण (बिहार) है। मध्यमवर्गीय संयुक्त परिवार के विजयकान्त जी की प्रारंभिक शिक्षा रामनगर(पश्चिम चम्पारण) में हुई है। तत्पश्चात स्नातक (बीए)बिहार विश्वविद्यालय से और हिन्दी साहित्य में एमए राजस्थान विवि से सेवा के दौरान ही किया। भारतीय वायुसेना से (एसएनसीओ) सेवानिवृत्ति के बाद नई मुम्बई में आपका स्थाई निवास है। किशोरावस्था से ही कविता रचना में अभिरुचि रही है। चम्पारण में तथा महाविद्यालयीन पत्रिका सहित अन्य पत्रिका में तब से ही रचनाएं प्रकाशित होती रही हैं। काव्य संग्रह ‘नए-पुराने राग’ दिल्ली से १९८४ में प्रकाशित हुआ है। राष्ट्रीयता और भारतीय संस्कृति के प्रति विशेष लगाव और संप्रति से स्वतंत्र लेखन है।
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