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भुखमरी के मेले में एक बार,
श्रीमती गरीबी से हुआ साक्षात्कार।
मंहगाई के बोझ से झुकी कमर,
आँसूओं के पैबंद साड़ी पर।
कानों में मजबूरी की बाली,
गालों पर विडंबनाओं की लाली।
माँथे पर भूख की बिन्दी,
लग रही थी जैसे हिन्दी।
पीठ से पेट मिला हुआ,
दहशत का कँवल खिला हुआ।
जवानी में ही दायित्व की झुर्रियां,
दमक रहीं थी नसों की मुर्रियां।
मैंने कहा-गरीबी जी नमस्कार,
अचंभित हो उसने किया प्रतिकार।
कौन हो भाई…..?
मैं बोला-कवि हूँ माई।
गरीबी खिलखिलाई..
अच्छा…बिरादरी के हो भाई।
मैं समझी….नेता हो
और..चुनाव आ गया।
मैं बोला…कैसा चुनाव!
गरीबी बोली वही चुनाव,
जो कुर्सी के लिए आता है
जिससें हमें ठगा जाता है।
आपको शायद नहीं मालूम,
चुनाव मेरा भाई है
नेता मेरा जमाई है।
बड़े अरमानों के साथ,
पीले किए थे हाथ
सौंप दी थी नेता को आजादी,
वहीं से शुरु हुई मेरी बरबादी।
पहले मेरा चुनाव हुआ बंधक,
आजादी लाचार हो चुकी थी तब तक।
तब से मेरे चुनाव को..
आगे कर नेता आता है,
और बेटी के सुखों का वादा कर
मेरे अधिकारों की पूंजी,
ठग ले जाता है ॥
#अनुपम कुमार सिंह ‘अनुपम आलोक’
परिचय : साहित्य सृजन व पत्रकारिता में बेहद रुचि रखने वाले अनुपम कुमार सिंह यानि ‘अनुपम आलोक’ इस धरती पर १९६१ में आए हैं। जनपद उन्नाव (उ.प्र.)के मो0 चौधराना निवासी श्री सिंह ने रेफ्रीजेशन टेक्नालाजी में डिप्लोमा की शिक्षा ली है।
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