युवा लेखक संजीव कुमार गंगवार एक गम्भीर व जागरूक चिन्तक हैं। इन्होने गुजरात भूकंप त्रासदी पर ” आपरेशन गुजरात ” व प्रेरणादायक ( motivational ) पुस्तकें ” आपकी सफलता आपके हाथ ” , ” विजेता बनने के लिए ” व ” जीत निश्चित है ” जैसी पुस्तकें छोटी सी उम्र में लिखीं । क्रिकेट समीक्षक के रूप में भी लिखा तो उनकी कविताओं, गजलों और बाल-साहित्य सम्बंधी पुस्तकें भी प्रकाशित हुईं । यही नहीं गत वर्ष आपको ” मोबाइल टेक्नोलॉज़ी और समाज ” पुस्तक के लिए उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान ने वर्ष 2017 का डॉ होमी जहांगीर भाभा अवार्ड दिया है।
आलोच्य पुस्तक आपकी नई पुस्तक ” मां हिंदी ” है जो वर्ष 2018 में साहित्य संचय प्रकाशक , दिल्ली से प्रकाशित हुई है।आपकी पिछ्ली किताबों की भान्ति यह पुस्तक एक बेहद ज्वलंत मुद्दे से पाठकों को रुबरू कराती है – हिंदी अब तक राजभाषा से राष्ट्रभाषा क्यों नहीं बन पाई! इस प्रश्न की पड़ताल के क्रम में लेखक एक आम हिंदीभाषी की तरह हिंदी को ” मां” कहकर सम्बोधित करते हैं। वे हिंदी भाषा से जुड़े तमाम ऐतिहसिक, सांस्कृतिक, राजनितिक और सामजिक पहलुओं को बड़ी बारीकी से पेश करते हैं। भाषिक समरसता पुस्तक की अन्यतम विशेषता है। तमिल , तेलुगू ,कन्नड़, मलयालम आदि सभी भाषाओं को आदर दिया गया है। किताब की संरचना में ” हिंदी साहित्य के इतिहास ” को बड़े यत्न से गूँथा गया है। स्व. श्री नामवर सिंह , डॉ सुधीश पचौरी , डॉ कमल किशोर गोएनका व श्री लीलाधर मंडलोई जैसे बड़े रचनाकारों ने संजीव की इस पुस्तक पर अपने वक्तव्य दिये हैं।
राजभाषा हिंदी से जुड़े तमाम मुद्दों का ठोस विश्लेषण , हिंदी साहित्य का इतिहास और सम्भवत: पहली बार ” संस्कृति पृथक प्रभाव ” के माध्यम से अंग्रेजी अपनाने या अपनी मातृभाषा को उपेक्षित करने से रचनात्मकता के खत्म होने की प्रक्रिया को स्पष्ट किया गया है। separation of culture effect एक अनूठी व नई अवधारणा है जो हमारी आँखें खोल देती है।
280 पृष्ठ की इस पुस्तक का अच्छा – खासा हिस्सा ” हिंदी साहित्य के इतिहास ” को समर्पित है। फिर भी कमाल यह कि ” मां हिंदी ” कोई टैक्स्ट बुक नहीं है। इस इतिहास का टेस्ट एकदम जुदा है। लेखक ने हिंदी साहित्य के इतिहास के माध्यम से भारतीय संस्कृति को समझने की कोशिश की है। आम आदमी को दृष्टि में रखते हुए आम बोलचाल की भाषा का प्रयोग इस इतिहास की बहुत बड़ी उपलब्धि है। प्राक्कथन में लिखा गया है कि वे साहित्य के इतिहास को आम आदमी तक पहुँचाना चाहते हैं।शायद अपने इसी संकल्प को पूरा करने के लिए लोक प्रचलित उदाहरणों को उठाया गया है। एक और विशेषता यह कि हिंदी साहित्य के इतिहास को राष्ट्रीय- अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं से जोड़कर किसी भी जागरुक आम नागरिक के मानसिक जगत से तादात्म्य बिठाया गया है। किताब पढ़ते हुए एकबार भी महसूस नहीं होता कि किसी भारी- भरकम उबाऊ विषय को पढ़ रहे हैं। किसी रोचक कहानी या उपन्यास को पढ़ने का सा मज़ा आता है। लेखक की विषेशता यह कि वे हिंदी के विशेषज्ञ नहीं हैं। वे हिंदी के मातृभाषी और युवा लेखक हैं । अत: हिंदी भाषा और उसके साहित्यिक विकास को वे किसी पंडित के चश्मे से नहीं बल्कि हिंदी के एक आम प्रयोक्ता की नज़र से देखते हैं और उसका मूल्यांकन करते हैं। इसके बाबजूद उन्होनें हिंदी साहित्य में कुछ नई स्थापनाये कर डाली हैं। जैसे छायावाद को सफलतापूर्वक खड़ी बोली हिंदी की शक्ति और सम्भावनाओं का टेक्नोलोजी ( तकनीकी) काल सिध्द किया है। छायावाद में प्रकृति के प्रयोग पर काफी लिखा गया है पर संजीव यह भी बताते हैं कि आखिर क्यों छायावादी कवि प्रकृति का चुनाव करते हैं। किसने सोचा होगा कि निराला की “राम की शक्ति पूजा” की मौलिक शक्ति का सम्बन्ध भारत की मौलिक शक्ति अर्थात् कृषि से जोड़ा जा सकता है।साथ ही शक्ति पूजा और प्रसाद की कामायनी को एक- दूसरे का पूरक बताते हुए उनमें से परतन्त्र हिंदुस्तान की आजादी के सन्देश को इस अन्दाज में पहचाना जायेगा । प्रेमचन्द क्यों 1925 के बाद यथार्थवाद की ओर मुड़ जाते हैं या कई स्थानों पर वे आचार्य राम चंद्र शुक्ल की स्थापनाओं से सीधे टकरा गये हैं। वर्तमान की समस्याओं पर उनकी टिप्पणियां बेहद सटीक और जानदार हैं।
शायद इसलिए स्व. नामवर सिंह जी ने कहा होगा कि मां हिंदी अन्य प्रचारवादी किताबों से भिन्न्न है । अपनी मृत्यु के पूर्व सम्भवत:किसी पुस्तक पर यह उनकी अंतिम टिप्पणी है और इसलिए बहुत महत्वपूर्ण है।
“मां हिंदी ” में अपनी तमाम विशेषताओं के साथ – साथ कुछ कमियाँ भी हैं। साहित्यिक कालखण्डों में कुछ को केवल स्पर्श भर किया है लेखक ने । पर शायद हिंदी साहित्य का इतिहास लेखन उनका उद्देश्य ही नहीं था ।
यह पुस्तक आम – जनता के लिए लिखी गई है। हिंदी साहित्य का इतिहास इसके माध्यम से हिंदुस्तान के आम-आदमी तक पहुंचाया जा सकता है। इसलिए सरकार के लोगों और साहित्य के चितेरों सहित सभी लोगों को मां हिंदी पढ़ना चाहिए । यह पुस्तक चबा- चबाकर पढ़ने लायक है और हमेशा अपने साथ रखने योग्य किताब है। सम्भवत: राजभाषा हिंदी के पक्ष में सर्वाधिक सशक्त किताब है यह।
पुस्तक – मां हिंदी
लेखक – संजीव कुमार गंगवार
प्रकाशक – साहित्य संचय
पृष्ठ – 280
मूल्य – 300/- मात्र
समीक्षक – डॉ मानसी रस्तोगी
#मुकेश कुमार ऋषि वर्मा
परिचय : मुकेश कुमार ऋषि वर्मा का जन्म-५ अगस्त १९९३ को हुआ हैl आपकी शिक्षा-एम.ए. हैl आपका निवास उत्तर प्रदेश के गाँव रिहावली (डाक तारौली गुर्जर-फतेहाबाद)में हैl प्रकाशन में `आजादी को खोना ना` और `संघर्ष पथ`(काव्य संग्रह) हैंl लेखन,अभिनय, पत्रकारिता तथा चित्रकारी में आपकी बहुत रूचि हैl आप सदस्य और पदाधिकारी के रूप में मीडिया सहित कई महासंघ और दल तथा साहित्य की स्थानीय अकादमी से भी जुड़े हुए हैं तो मुंबई में फिल्मस एण्ड टेलीविजन संस्थान में साझेदार भी हैंl ऐसे ही ऋषि वैदिक साहित्य पुस्तकालय का संचालन भी करते हैंl आपकी आजीविका का साधन कृषि और अन्य हैl