भोजन में कंकड़ है कर्नाटक का हिन्दी विरोध….

0 0
Read Time6 Minute, 54 Second
tarkesh ojha
tarkesh ojha

`हिन्दी दिवस` विशेष………
छात्र जीवन में अनायास ही एक बार दक्षिण भारत की यात्रा का संयोग बन गया। तब तामिलनाडु में हिन्दी विरोध की बड़ी चर्चा होती थी। हमारी यात्रा ओड़िशा के रास्ते आंध्रप्रदेश से शुरू हुई और तामिलनाडु तक जारी रही। इस बीच केरल का एक हल्का चक्कर भी लग गया। केरल की बात करें तो हम बस राजधानी त्रिवेन्द्रम तक ही जा सके थे। यह मेरे जीवन की अब तक कि पहली और आखिरी दक्षिण भारत यात्रा है। ८० के दशक में की गई इस यात्रा के बाद फिर कभी वहां जाने का संयोग नहीं बन सका। हालांकि,मुझे दुख है कि करीब एक पखवाड़े की इस यात्रा में कर्नाटक जाने का सौभाग्य नहीं मिल सका। दक्षिण की यात्रा के दौरान मैंने महसूस किया कि,तामिलनाडु समेत दक्षिण के राज्यों में बेशक लोगों में हिन्दी के प्रति समझ कम है। वे अचानक किसी को हिन्दी बोलता देख चौंक उठते हैं, लेकिन विरोध का स्तर दुर्भावना से अधिक राजनीतिक है। तामिलनाडु समेत दक्षिण के सभी राज्यों में तब भी वह वर्ग जिसका ताल्लुक पर्यटकों से होता था,धड़ल्ले से टूटी-फूटी ही सही लेकिन हिन्दी बोलता था। उन्हें यह बताने की भी जरूरत नहीं होती थी कि,हम हिन्दीभाषी हैं। बहरहाल समय के साथ समूचे देश में हिन्दी की व्यापकता व स्वीकार्यता बढ़ती ही गई। अंतरराष्ट्रीय शक्तियों व बाजार की ताकतों ने भी हिन्दी की व्यापकता को स्वीकार किया और इसका लाभ उठाना शुरू किया, लेकिन एक लंबे अंतराल के बाद कर्नाटक में अचानक शुरू हुआ हिन्दी विरोध समझ से परे है। वह भी उस दल द्वारा जिसका स्वरूप राष्ट्रीय है। आज तक कभी कर्नाटक जाने का मौका नहीं मिलने से दावे के साथ तो कुछ कह पाने की स्थिति में नहीं हूं,लेकिन मुझे लगता है कि इस विरोध को वहां के बहुसंख्य वर्ग का समर्थन हासिल नहीं है। यह विरोध सामाजिक कम और राजनीतिक ज्यादा है। मुझे याद है कि,तकरीबन पांच साल पहले एक बार बंगलोर में उत्तर पूर्व के लोगों के साथ कुछ अप्रिय घटना हो गई थी। इसी दौरान मुंबई समेत महाराष्ट्र के कुछ शहरों में भी परप्रांतीय का मुद्दा जोर पकड़ रहा था। इसके चलते हजारों की संख्या में इन प्रदेशों के लोग ट्रेनों में भर-भरकर अपने घरों को लौटने लगे,लेकिन कुछ दिनों बाद आखिरकार अंधेरा मिटा और उन राज्यों के लोग फिर बंगलोर समेत उन राज्यों को लौटने लगे,जो उनकी कर्मभूमि है। मुझे याद है तब अखबारों में एक आला पुलिस अधिकारी की हाथ जोड़े उत्तर पूर्व से वापस बंगलोर पहुंचे लोगों का स्वागत करते हुए खबर और तस्वीर प्रमुखता से अखबारों में छपी थी। यह तस्वीर देख मेरा मन गर्व से भर उठा था। मुझे लगा कि,देश के हर राज्य को ऐसा ही होना चाहिए। जो धरतीपुत्रों की तरह उन संतानों को भी अपना माने जो कर्मभूमि के लिहाज से उस जगह पर रहते हैं। आज तक मैंने कर्नाटक में हिन्दी विरोध या दुर्भावना की बात कभी नहीं सुनी थी,लेकिन एक ऐसे दौर में जब भाषाई संकीर्णता लगभग समाप्ति की ओऱ है,कर्नाटक में नए सिरे से उपजा हिन्दी विरोध आखिर क्यों स्वादिष्ट भोजन की थाली में कंकड़ की तरह चुभ रहा है,यह सवाल मुझे परेशान कर रहा है। आज के दौर में मैंने अनेक ठेठ हिन्दी भाषियों को मोबाइल या लैपटॉप पर हिन्दी में डब की गई दक्षिण भारतीय फिल्में घंटों चाव से निहारते देखा है। अक्सर रेल यात्रा के दौरान मुझे ऐसे अनुभव हुए हैं,बल्कि कई तो इसके नशेड़ी बन चुके हैं। और अहिन्दी भाषियों की हिन्दी फिल्मों के प्रति दीवानगी का तो कहना ही क्या। मुझे अपने आस-पास ज्यादातर ऐसे लोग ही मिलते हैं,जिनके मोबाइल के कॉलर या रिंग टोन में उस भाषा के गाने सुनने को मिलते हैं जो उनकी अपनी मातृभाषा नहीं है। मैं जिस शहर में रहता हूं वहां की खासियत यह है कि यहां विभिन्न भाषा-भाषी लोग सालों से एक साथ रहते आ रहे हैं। यहां किसी-न- किसी बहाने सार्वजनिक पूजा का आयोजन भी होता रहता है। प्रतिमा विसर्जन परंपरागत तरीके से होता है, जिसमें युवक अमूमन उन गानों पर नाचते-थिरकते हैं जिसे बोलने वाले शहर में गिने-चुने लोग ही हैं। शायद उस भाषा का भावार्थ भी नाचने वाले लड़के नहीं समझते,लेकिन उन्हें इस गाने की धुन अच्छी लगती है तो वे बार-बार यही गाना बजाने की मांग करते हैं, जिससे वे अच्छे से नाच सकें। एक ऐसे आदर्श दौर में किसी भी भाषा के प्रति विरोध या दुर्भावना सचमुच गले नहीं उतरती,लेकिन देश की राजनीति की शायद यही विडंबना है कि वह कुछ भी करने-कराने में सक्षम है।

                                                        #तारकेश कुमार ओझा

लेखक पश्चिम बंगाल के खड़गपुर में रहते हैं और वरिष्ठ पत्रकार हैं | तारकेश कुमार ओझा का निवास  भगवानपुर(खड़गपुर,जिला पश्चिम मेदिनीपुर) में है |

matruadmin

Average Rating

5 Star
0%
4 Star
0%
3 Star
0%
2 Star
0%
1 Star
0%

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Next Post

विदेशों में राष्ट्रभाषा की प्रभुविष्णुता

Thu Sep 14 , 2017
नीदरलैंड देश में ग्रीष्मावकाश को `समर वैकेंसी` और ग्रीष्म समय को ‘समर टाइद’ कहते हैं क्योंकि इस भाषा में समय के लिए `टाइद` शब्द का प्रयोग होता है। ग्रीष्म ऋतु के शुरू होते ही ग्रीष्म समय और अवकाश का खुमार यहां के जीवन में शुमार हो जाता है। उसका एक […]

संस्थापक एवं सम्पादक

डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

आपका जन्म 29 अप्रैल 1989 को सेंधवा, मध्यप्रदेश में पिता श्री सुरेश जैन व माता श्रीमती शोभा जैन के घर हुआ। आपका पैतृक घर धार जिले की कुक्षी तहसील में है। आप कम्प्यूटर साइंस विषय से बैचलर ऑफ़ इंजीनियरिंग (बीई-कम्प्यूटर साइंस) में स्नातक होने के साथ आपने एमबीए किया तथा एम.जे. एम सी की पढ़ाई भी की। उसके बाद ‘भारतीय पत्रकारिता और वैश्विक चुनौतियाँ’ विषय पर अपना शोध कार्य करके पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। आपने अब तक 8 से अधिक पुस्तकों का लेखन किया है, जिसमें से 2 पुस्तकें पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए उपलब्ध हैं। मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष व मातृभाषा डॉट कॉम, साहित्यग्राम पत्रिका के संपादक डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ मध्य प्रदेश ही नहीं अपितु देशभर में हिन्दी भाषा के प्रचार, प्रसार और विस्तार के लिए निरंतर कार्यरत हैं। डॉ. अर्पण जैन ने 21 लाख से अधिक लोगों के हस्ताक्षर हिन्दी में परिवर्तित करवाए, जिसके कारण उन्हें वर्ल्ड बुक ऑफ़ रिकॉर्डस, लन्दन द्वारा विश्व कीर्तिमान प्रदान किया गया। इसके अलावा आप सॉफ़्टवेयर कम्पनी सेन्स टेक्नोलॉजीस के सीईओ हैं और ख़बर हलचल न्यूज़ के संस्थापक व प्रधान संपादक हैं। हॉल ही में साहित्य अकादमी, मध्य प्रदेश शासन संस्कृति परिषद्, संस्कृति विभाग द्वारा डॉ. अर्पण जैन 'अविचल' को वर्ष 2020 के लिए फ़ेसबुक/ब्लॉग/नेट (पेज) हेतु अखिल भारतीय नारद मुनि पुरस्कार से अलंकृत किया गया है।