आज तक मुझे जार -चिंतन का मर्म समझ में नहीं आ सका. यदि यह किसी कुंठाग्रस्त मर्द का चिंतन है, तब मुझे कुछ नहीं कहना. लेकिन यदि कोई इसे गंभीरता से लेता है , तब मैं बहस के बीच होना चाहूँगा. एक अधिकारी लेखक धर्मवीर के हवाले से इस बहस की चर्चा मैंने साहित्यिक हलकों में देखी-सुनी. जब तक वह जीवित थे , तब तक इस पर बहुत जोर नहीं था. संभव है, यह उनकी व्यक्तिगत कुंठा हो. लेकिन उनकी मृत्यु के बाद भी जब कुछ लोगों ने इस पर चर्चा बनाये रखने की कोशिश की है.तब इसका अर्थ है, वाकई इस पर एक बार चर्चा हो जानी चाहिए.
जार-कर्म चिंतन का मतलब है, व्यभिचार पर विमर्श. होना तो यह चाहिए कि जार-कर्म पर जब भी बहस हो, पुरुषों और स्त्रियों दोनों के व्यभिचार पर हो. लेकिन यह प्रायः होता नहीं है. इस विमर्श के केंद्र में केवल स्त्री रख दी जाती है. पुरुष समाज स्त्रियों की पवित्रता-अपवित्रता पर सहभागिता के आधार पर विमर्श कर सकता है ; किन्तु , इसकी पहली शर्त होगी स्त्रियों को भी पुरुषों के शील की मीमांसा का अधिकार मिले.
दरअसल गर्भ और संतान की तथाकथित पवित्रता का ख्याल मर्दों के संपत्ति पर अधिकार और उसके म्युटेशन से जुड़ा है. जब समाज में व्यक्तिगत संपत्ति का अस्तित्व आया ,तब पुरुष सुनिश्चित करना चाहने लगा कि मुझ द्वारा अर्जित संपत्ति का जो उत्तराधिकारी होगा , वह मेरा अंश है या किसी और का. निजी संपत्ति की इसी अवधारणा ने स्त्रियों को गुलाम बनाया. ‘ सभ्य – समाज ‘ में उन्हें पवित्रता की गारंटी सुनिश्चित करनी होती है. जैसे रामकथा की सीता को अग्निपरीक्षा देनी पड़ी थी. वशिष्ठ और राम के आरोप इसके अलावे और क्या हो सकते थे कि सीता का गर्भ जार -कर्म से है. जार -कर्म से जन्मा बच्चा राजा का उत्तराधिकारी कैसे होगा! सीता को वनवास की सजा मिली. प्रश्नांकित गर्भस्थ शिशु (या शिशुओं ) को राम ने त्याग दिया. इन्ही जारज संतानों ने रामराज का तख्ता पलट कर रख दिया. कहीं दलित अफसर धर्मवीर, स्वयं को ब्राह्मण वशिष्ठ का अवतार तो नहीं समझते थे?
आज स्त्रियों की आज़ादी का प्रश्न अहम है. आज कोई व्यक्ति इस तरह जार-कर्म की सैद्धांतिकी पेश करता है, तब वह या तो एक पाखण्ड खड़ा कर रहा है, या फिर अपराध. मैंने डॉ धर्मवीर का कबीर विषयक विमर्श देखा था. उन्होंने कुछ बेहतर सवाल उठाये थे. उन्ही के आधार पर उनकी मृत्यु पर मैंने एक श्रद्धांजलि लेख भी लिखा था. लेकिन, अब देखता हूँ , उनके तथाकथित अनुयायियों या मित्रों ने जार-कर्म चिंतन को ही उनका मूल चिंतन मान लिया है. इस विषय को धर्मवीर ने केवल व्यक्तिगत स्तर पर देखा. वह भी अपनी पुरुष और अफसरी कुंठा और दम्भ के साथ . इस स्थिति में उनकी सोच का कोई सामाजिक मूल्य बनता ही नहीं. उनकी पत्नी का पक्ष सुने बिना धर्मवीर का लेखन, चिंतन नहीं, एक प्रलाप बन कर रह जाता है. ऋग्वेद का पुरुरवा, उर्वशी के लिए कुछ ऐसा ही प्रलाप करता है.
उपनिषद-साहित्य में एक कथा है ,जाबाल की . बालक जाबाल गुरुकुल में प्रवेश लेने जाता है ,तो गुरु उसके पिता का नाम और गोत्र पूछते हैं. जाबाल ने पिता क्या होता है ,यह जाना ही नहीं था. गुरु ने कहा ,माँ से पूछ आओ. बालक माँ से पूछने गया. माँ ने कहा ,मैं खुद नहीं जानती कि तुम्हारा पिता कौन है. दरअसल उसकी माँ जब ऋतुमती हुई थीं ,तब कई कुमार उनके संपर्क में आये थे. उनमें से कौन उसका पिता हुआ ,उसे तय करना माँ के लिए भी मुश्किल था. जाबाल ने यही बात जाकर गुरु को बतलायी. गुरु ने जाबाल की सच्चाई का स्वागत किया. उसका नाम रखा ,सत्यकाम. पूरा नाम हुआ सत्यकाम जाबाल. वह उपनिषदों का एक महान व्याख्याकार और दार्शनिक हुआ.
हमारी परंपरा में कृष्ण द्वैपायन अर्थात वेदव्यास जारज थ . जाने कितने ऋषि -महर्षि जारज हुए . धर्मवीर आज नहीं हैं . उनके मित्रगण हैं. उन्हें इतिहासकार सर्वपल्ली गोपाल लिखित सर्वपल्ली राधाकृष्णन की जीवनी पढ़नी चाहिए . गोपाल साहब पूर्व राष्ट्रपति और दार्शनिक राधाकृष्णन के बेटे थे . विद्वान् पुत्र ने विश्रुत पिता की जीवनी लिखी है. आरंभिक पृष्ठ पर ही अपने पिता राधाकृष्णन की जन्मकथा रखते हुए उन्होंने लिखा है कि उनके पिता संभवतः उनके दादा की संतान नहीं थे . इससे क्या हुआ ? उस जीवनी को पढ़ते हुए मैंने जाना कि राधाकृष्णन को जन्मकथा मालूम थी ,इसी कारण वह अपनी माँ के प्रति सम्मान नहीं रखते थे . केवल इस आधार पर यदि उनका माँ के प्रति अनादर था, तब इसका मतलब है, राधाकृष्णन कुंठित दिमाग के थे . ऐसा व्यक्ति किसी भी स्तर का दार्शनिक तो नहीं ही कहा जा सकता . तार्किक और जानकार होना अलग बात है . इस जानकारी के बाद मेरी राधाकृष्णनन से अश्रद्धा हो गयी.
जारज और जायज ,असली और नकली ,पवित्र और अपवित्र संततियों की बात करना ही पिछड़े हुए दिमाग की निशानी है . यह पुरुषवादी , वर्चस्ववादी या ब्राह्मणवादी सोच है . मनुष्य होना ही काफी है . कोई भी आधुनिक समाज पवित्र -अपवित्र के आधार पर बच्चों का विभाजन नहीं कर सकता. समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया की एक किताब है -‘ जातिप्रथा ‘ . यह उनके भाषणों का संकलन है . इस किताब के पहले ही लेख का शीर्षक है, ‘ जाति और योनि के दो कठघरे .’ योनि की शुचिता और पवित्रता ही जातिप्रथा के आधार हैं . यह शुचिता जैसे ही ध्वस्त होती है , जातिप्रथा भहरा कर गिर पड़ेगी . इसलिए कि जाति के मूल में जन्म और योनि है ,जैसे वर्ण के मूल में नस्ल या रंग.
धर्मवीर का कुंठित जातिवादी दिमाग आंबेडकर पर भी हमला करता है. वह उनकी आलोचना करते हैं कि दलित महार होकर ,अम्बेडकर ने एक क्षत्रिय बुद्ध को अपना इष्ट या मार्गदर्शक क्यों बनाया . अब इस कुंठा का कोई जवाब हो सकता है क्या कि कोई शेक्सपियर ,मार्क्स या माओ को क्यों पढ़े ,या उनसे कुछ सीखे . इसी आधार पर कुछ लोग यहां तक लिख रहे हैं कि ‘आम्बेडकर बुद्ध से बड़े थे ‘. इसमें बड़ा -छोटा होना क्या है . बुद्ध की विचारधारा में आने वाले अनेक महत्वपूर्ण दार्शनिक हैं और वे सब बुद्ध से बड़े हैं . नई पीढ़ी का हर प्रबुद्ध इंसान अपने पूर्वजों द्वारा अर्जित ज्ञान -सम्पदा के ऊपर होता ही है. बुद्ध ,कबीर और फुले को आम्बेडकर अपना मार्गदर्शक मानते थे . वह इनके विचारों से होकर गुजर चुके थे . उन्होंने अपने समय के सवालों को पूर्वज विचारकों के ज्ञान -निकष पर परखा और कुछ नई चीजें दी. कार्ल मार्क्स ने जर्मन दर्शन परंपरा को आगे बढ़ाया . उन्होंने हेगेल के सिर के बल खड़े द्वंद्ववाद को उलट कर पैर के बल कर दिया . यह विकास है . इसमें बड़ा -छोटा होने जैसी कोई बात नहीं है . ब्राह्मणवादी चेतना हमेशा बड़ा -छोटा और ऊंच -नीच के मुहावरे में झूलती होती है . दुर्भाग्यपूर्ण है कि आम्बेडकर की कलगी लगा कर कुछ लोग ब्राह्मणवादी चेतना का विस्तार दे रहे हैं . वह अपने अज्ञान से भी अनजान हैं . इनके लिए मैं कामना के अलावे भला और क्या कर सकता हूँ . इन तथाकथित दलित मित्रों के अध्यवसाय का मैं दिल से सम्मान करता हूँ ,लेकिन आम्बेडकर को सकीर्ण जातिवादी घेरे में बाँधने के उनके प्रयासों को रेखांकित करने में स्वयं को असमर्थ पाता हूँ.
जार -कर्म पर बहस उछालने वाले मित्रों को डॉ आम्बेडकर का नारी विषयक चिंतन देखना चाहिए . वह उदार और प्रगतिपरक है. आंबेडकर की वैचारिकी जितना दलित -उद्धारक है ,उससे कहीं अधिक नारी -उद्धारक है . स्त्रियों की समग्र आज़ादी के वह हिमायती थे . उन्होंने किसी दलित -प्रसंग पर नहीं, हिन्दू कोड बिल के लिए मंत्रिमंडल से इस्तीफा किया था .यह बिल स्त्रियों की तथाकथित अपवित्रता या व्यभिचारिता की स्थिति में भी उन्हें संपत्ति के अधिकार देती है . धर्मवीर की विधवा तमाम सवालों के बाद भी यदि उनके पेंशन की कानूनी अधिकारिणी होती है ,तो यह आम्बेडकर के कारण संभव है .
यह यौन -शुचिता पुरुषों का एक पाखंड है . स्त्रियों की पवित्रता की यह अवधारणा ही मनुस्मृति का मूलाधार है. इसीलिए तो , मनु -संहिता स्त्री को बाल्यावस्था में पिता ,युवावस्था में पति और वृद्धावस्था में पुत्रों के अधीन रहने की व्यवस्था देती है. ” न भजेत स्त्रीस्वतंत्रताम ” . स्त्रियों को कभी आज़ाद मत रखो. शूद्रों और स्त्रियों की गुलामी मनुस्मृति का मूलाधार है . मनु- स्मृति अंतर्वर्णीय विवाहों पर रोक नहीं लगाती . उच्चवर्णीय पुरुषों को निम्नवर्णीय पुरुषों से विवाह की अनुमति है .इसे अनुलोम विवाह कहा गया है . निम्नवर्णीय पुरुष उच्चवर्णीय स्त्री से विवाह करता है तब यह प्रतिलोम विवाह होता है . प्रतिलोम विवाहों को मनु हतोत्साहित करता है . वर्चस्व की चाबी पेशा निर्धारित करने में है . मनुस्मृति व्यक्ति को पेशा चुनने का अधिकार नहीं देती . पेशा चुनने का अधिकार उस समाज का है, जिस पर ब्राह्मण वर्चस्व है .अर्थात ब्राह्मणों का है . इसीलिए एक ब्राह्मण पुरुष और शूद्र स्त्री की संतान को आयोगव ( काष्ठ-कर्म ) और शूद्र पुरुष और ब्राह्मण स्त्री की संतान को चांडाल घोषित किया गया . चांडाल सभी नागरिक अधिकारों से वंचित हैं.
धर्मवीर का यह तथाकथित जार -चिंतन मनुस्मृति से भी अधिक दकियानूसी है . यह वह पवित्रतावाद है, जो कुछ अंशों में आरएसएस का आधार है . हालांकि ईमानदार टिप्पणी यही होगी कि आरएसएस भी इस स्तर तक पागलपन का प्रचारक नहीं है.
प्रेमकुमार मणि हिंदी के चर्चित कथाकार व चिंतक हैं। दिनमान से पत्रकारिता की शुरुआत। अबतक पांच कहानी संकलन, एक उपन्यास, और पांच निबंध संकलन प्रकाशित। उनके निबंधों ने हिंदी में अनेक नए विमर्शों को जन्म दिया है तथा पहले जारी कई विमर्शों को नए आयाम दिए हैं। बिहार विधान परिषद् के सदस्य भी रहे।
प्रेमकुमार मणि