दर्द-ए-दिल हद से गुजरने को है,
या ये कहिए कि ठहरने को है।
बुलबुले उठ रहे हैं पानी में,
कुछ तो दरिया से उभरने को है।
चल किनारे पे खड़े हो जाएँ,
चाँद दरिया में उतरने को है।
कोई हलचल है न कोई जज़्बा,
मेरा अहसास भी मरने को है।
तू किताबों से हटा दे ये फूल,
गंध कमरे में बिखरने को है।
हौंसला रखना ‘ज़िया’ उड़ने में,
वो तेरे पर कतरने को है।
#सुभाष पाठक ‘ज़िया’
परिचय : सुभाष पाठक लेखन में उप नाम ‘ज़िया’ लगाते हैं। जन्म १९९० में हुआ है। आप काफी समय से ग़ज़ल लिख रहे हैं। मध्यप्रदेश के ज़िला शिवपुरी से सम्बन्ध रखते हैं।
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