अमन और फारूख दोस्त थे। दोनों अलग-अलग सरकारी विभागों में अफसर थे। उनके ऑफिस एक ही बिल्डिंग में अलग-अलग फ्लोर पर थे,पर लंच के समय कैंटीन में रोज मिलते और परस्पर भाभियों के बनाए खाने की तारीफ करते हुए चटखारे ले-लेकर एक-दूसरे का लंच शेयर करते थे।
आज जब दोनों का टिफिन खुला तो अमन बिना कुछ बोले चुपचाप खाने लगा। उसे शांत,परेशान और गंभीर मुद्रा में देख फारुख से नहीं रहा गया- ‘क्यों यार! बड़े चुप-चुप हो,क्या बात है?’
‘कुछ खास नहीं यार।’ ठंडी साँस भरते हुए अमन ने कहा-‘अब तो लगता है सच्चाई और अच्छाई का जमाना ही नहीं रहा।’
‘आखिर हुआ क्या है? कुछ बताओ तो!’
‘यार,आज एक बंदा लाइसेंस बनवाने के लिए मेरे पास आया। मैंने उससे कहा कि जो-जो डाक्यूमेंट्स मांगे गए हैं,वो लेकर आओ,बन जाएगा। तो वह मुझ पर ही भड़क गया,और कहने लगा कि पहले तो ऐसे ही बन जाता था। रिश्वत में ज्यादा पैसों के लिए मैं इस तरह नियम-कायदों की बात कर रहा हूँ। उसने सीधे-सीधे मुझे रिश्वतखोर बना दिया,यार…! बड़ा अजीब है…मुश्किल है…ईमानदारी से जीना।’ अमन ने अपनी पूरी व्यथा व्यक्त कर दी।
‘जानते हो अमन! हमारी सबसे बड़ी प्राब्लम क्या है? वो ये कि…हम समय से ऑफिस आते हैं…पूरी निष्ठा से अपने कर्त्तव्य का निर्वाह करते हैं…ईमानदार हैं….रिश्वत नहीं लेते हैं। दरअसल,हमारा अच्छा होना ही आज के जमाने में लोगों के लिए सबसे बड़ी खराबी है। वो क्या है न,कि उनकी प्राब्लम ये है कि इस भ्रष्ट जमाने में भी खराब,भ्रष्ट और बेईमान न होकर हम इतने अच्छे,सच्चे और ईमानदार क्यों हैं?’
फारूख ने अमन को आज की सोच व मानसिकता समझाने की कोशिश की। अमन भी अब इस विषय पर कुछ सोचने लगा था।
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#विजयानंद विजय
परिचय : विजयानंद विजय की अभिरुचि स्वतंत्र लेखन में है।आपका निवास बक्सर (बिहार) में है और
संप्रति अध्यापन (राजकीय सेवा)की है।