सड़क किनारे,
बैठे देखा उनको,
जो आती–जाती गाड़ियों पर,
उम्मीद की निगाहों से,
टकटकी लगाये..
चारपाई की दूकान पर,
खिलौने सजाकर
पोंछते रहते हैं
दिनभर…
उनकी धूल,
जो सरपट दौड़ती गाड़ियाँ,
तोहफ़े में दे जाती हर रोज़।
जिस चारपाई पर
रातभर सोया
घर का मुखिया,
पत्नी बालक सभी के लिये,
ज़मीन-बिछोना,
आस- लिहाफ़,
संघर्ष-जीवन।
सु-प्रभात की मुस्कान लिये
सलवटों से भरा ललाट,
अकथ वेदना को बयां करता
बस चाहिए तो,
पढ़ने का तर्जुबा…
पर अकथ की तालीम आजकल
जीवन के पाठ्यक्रम में शामिल कहां?
हां! याद आया,
कभी-कभी,
कहीं-कहीं,
उसकी ट्यूशन मिल जाती है…।
जीवन की साफ़-सुथरी पटकथा,
पेट से होकर…
उसके ललाट तक आते-आते
सलवटों में तब्दील होती है।
इतनी पारदर्शिता क्यों…?
रात की खिचड़ी-सब्ज़ी से सने…
बच्चों के आधे धुले मटमैले चौकटे…
सवेरे ही दंतुली-मुस्कान
बयां करती अनकही कथा…
बालकों में उत्सुकता
खिलौने सजाने की होड़।
सजे-धजे खिलौने,
चारपाई पर जीवन बिताते
कभी- कभी अपनों से बिछड़ जाते
दिनभर चारपाई पर…
मालिकाना हक़ जमाते
इतराते-इठलाते…
दिन का वसीयतनामा…
अपने नाम लिखवाते,
प्लास्टिक के बेजान खिलौने…
सड़क किनारे..
अलबेला उत्सव मनाते…।
डॉ. रेखा शेखावत
सहायक प्रोफेसर-हिंदी,
राजकीय महाविद्यालय, सतनाली, महेंद्रगढ़, हरियाणा।