परिचर्चा संयोजक-
डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’
किसी भी समाज, नगर या राष्ट्र के निर्माण की आधारशीला में जिन तत्त्वों की गणना अग्रणीय है, उनमें से साहित्य वरीय है। बौद्धिक आधार ही समाज के, समकाल के आचरण, सभ्यता और रमणीयता का कारण है। आज भारत अपने नवनिर्माण की ओर अग्रसर है, बौद्धिक इन्द्रजाल से मुक्ति की ओर बढ़ रहा है, सर्जना के साधकों की जवाबदेही और ज़िम्मेदारी दोनों ही इस समय बढ़ी हुई हैं, क्योंकि बुद्धि पर बुद्ध की कलाई लगाने की आवश्यकता है। अपने पूर्वजों की संरचनाओं से इस कंकाल को सुसज्जित करने की महत्ती आवश्यकता है।
इस कड़ी में मातृभाषा डॉट कॉम द्वारा ‘राष्ट्र के नवनिर्माण में साहित्य और साहित्यकारों की भूमिका’ विषय पर आयोजित डिजिटल परिचर्चा में विद्वानों ने
विचार रखे–
बाल पत्रिका देवपुत्र के संपादक गोपाल जी माहेश्वरी के अनुसार ‘राष्ट्र का नव निर्माण तब आवश्यक होता है जब उसके भूमि, जन और संस्कृति इन तीन अंगों में एक भी क्षरित या विकृत होने लगता है। इनमें प्रायः संस्कृति दीर्घकालिक परकीय आघातों से अथवा स्वकीयों द्वारा उपेक्षा से क्षरित होती है। वर्तमान भारत इसी दशा में है। एक हज़ार वर्षीय परकीयदुष्प्रयत्नों ने इस सनातन संस्कृति को क्षत करने के यत्न किए और स्वातन्त्र्योत्तर छः सात दशकों के कालखंड में इसे नव्यता के भ्रम में स्वकीयों के सनातनतात्यागजन्य आस्थागत संकट झेलना पड़े हैं। इतिहास साक्षी है जब भी सांस्कृतिक धारा विच्छिन्न होती है, साहित्य ही उसे संरक्षण देता है। नई पीढ़ी को अपनी धरोहर का पुनर्बोध कराता है। जब जन से जन तक परंपरावहन का मार्ग बाधित रहता है, साहित्य इस कर्त्तव्यक्षति की पूर्ति कर राष्ट्र का सांगोपांग पुनर्निर्माण करता है। हमारा राष्ट्र सनातन है, अमर है। इसका पुनर्निर्माण पुनः शून्य सृष्टि नहीं है क्योंकि यह पूर्णतः क्षय कभी हुआ ही नहीं, न कभी होगा ही। अतः इसके क्षीण या क्षरित अंगोपांगों को पुनः स्वरूप में संधारित, संसाधित कर प्रतिष्ठित करना ही राष्ट्र का पुनर्निर्माण है। इस उद्देश्य की पूर्ति में मूलतः स्वदेशी साहित्य महत्त्वपूर्ण साधन है।’
देवी अहिल्या कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय इंदौर में सहायक प्राध्यापक अखिलेश राव जी ने कहा कि ‘हमें देखना होगा कि साहित्य और साहित्यकार किस हद तक राष्ट्र निर्माण में अपना योगदान देते हैं। साहित्यकारों ने राष्ट्र हितार्थ अपनी रचनाओं के माध्यम से राष्ट्र में अलख जगाकर जनता को जागृत किया है, उनकी खोई हुई चेतना को वापस लाए हैं। देश के पुनर्निर्माण राष्ट्र निर्माता में अपनी महत्ती भूमिका निभाई। जब-जब भी इस राष्ट्र को आवश्यकता हुई है, तब–तब राष्ट्र के साहित्य और साहित्यकारों ने बढ़–चढ़कर हिस्सा लिया है और उसके निर्माण की भूमिका में अपने आप को साबित किया है।
समाज के नवनिर्माण में साहित्य की भूमिका के परीक्षण से पूर्व यह जानना आवश्यक है कि साहित्य का स्वरूप क्या है और उसके समाज दर्शन का लक्ष्य क्या है? हितेन सह इति सष्टिमूह तस्याभाव: साहित्यम्। यह वाक्य संस्कृत का एक प्रसिद्ध सूत्र-वाक्य है, जिसका अर्थ होता है साहित्य का मूल तत्त्व सबका हितसाधन है। मानव अपने मन में उठने वाले भावों को जब लेखनीबद्ध कर भाषा के माध्यम से प्रकट करने लगता है तो वह रचनात्मकता ज्ञानवर्धक अभिव्यक्ति के रूप में साहित्य कहलाता है। साहित्य का समाजदर्शन शूल-कंटों जैसी परंपराओं और व्यवस्था के शोषण रूप का समर्थन करने वाले धार्मिक नैतिक मूल्यों के बहिष्कार से भरा पड़ा है। जीवन और साहित्य की प्रेरणाएँ समान होती हैं। समाज और साहित्य में अन्योन्याश्रित संबंध होता है। साहित्य की पारदर्शिता समाज के नवनिर्माण में सहायक होती है, जो खामियों को उजागर करने के साथ उनका समाधान भी प्रस्तुत करती है। समाज के यथार्थवादी चित्रण, समाज सुधार का चित्रण और समाज के प्रसंगों की जीवंत अभिव्यक्ति द्वारा साहित्य समाज के नवनिर्माण का कार्य करता है।
साहित्य में मूलत: तीन विशेषताएँ होती हैं, जो इसके महत्त्व को रेखांकित करती हैं। उदाहरणस्वरूप साहित्य अतीत से प्रेरणा लेता है, वर्तमान को चित्रित करने का कार्य करता है और भविष्य का मार्गदर्शन करता है। साहित्य को समाज का दर्पण भी माना जाता है। हालाँकि जहाँ दर्पण मानवीय बाह्य विकृतियों और विशेषताओं का दर्शन कराता है, वहीं साहित्य मानव की आंतरिक विकृतियों और ख़ूबियों को चिह्नित करता है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि साहित्यकार समाज में व्याप्त विकृतियों के निवारण हेतु अपेक्षित परिवर्तनों को भी साहित्य में स्थान देता है। साहित्यकार से जिन वृहत्तर अथवा गंभीर उत्तरदायित्वों की अपेक्षा रहती है, उनका संबंध केवल व्यवस्था के स्थायित्व और व्यवस्था परिवर्तन के नियोजन से ही नहीं है, बल्कि उन आधारभूत मूल्यों से है, जिनसे इनका निर्णय होता है कि वे वांछित दिशाएँ कौन-सी हैं, और जहाँ इच्छित परिणामों और हितों की टकराहट दिखाई पड़ती है, वहाँ पर मूल्यों का पदानुक्रम कैसे निर्धारित होता है?
साहित्य समाज की उन्नति और विकास की आधारशिला रखता है। इस संदर्भ में अमीर खुसरो से लेकर तुलसी, कबीर, जायसी, रहीम, प्रेमचंद, भारतेन्दु, निराला, नागार्जुन तक की शृंखला के रचनाकारों ने समाज के नवनिर्माण में अभूतपूर्व योगदान दिया है। व्यक्तिगत हानि उठाकर भी उन्होंने शासकीय मान्यताओं के ख़िलाफ़ जाकर समाज के निर्माण हेतु कदम उठाए। कभी-कभी लेखक समाज के शोषित वर्ग के इतना करीब होता है कि उसके कष्टों को वह स्वयं भी अनुभव करने लगता है। तुलसी, कबीर, रैदास आदि ने अपने व्यक्तिगत अनुभवों का समाजीकरण किया था, जिसने आगे चलकर अविकसित वर्ग के प्रतिनिधि के रूप में समाज में स्थान पाया। मुंशी प्रेमचंद के एक कथन को यहाँ उद्धृत करना उचित होगा, ‘जो दलित है, पीड़ित है, संत्रस्त है, उसकी साहित्य के माध्यम से हिमायत करना साहित्यकार का नैतिक दायित्व है।’
परिचर्चा के निष्कर्ष से यह ज्ञात होता है कि रामवृक्ष बेनीपुरी के निबंध ‘नींव की ईंट’ के समान साहित्य का स्थान राष्ट्र के निर्माण में रहा है और साहित्यकारों में राष्ट्र की सुसुप्त चेतना को जागृत कर मेधा को प्रखर किया है। यह क्रम अनवरत जारी रहेगा, तभी समाज का पुनर्निर्माण सम्भव है।