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किसी शांत नदी सी तुम,
मजबूती से संभालता किनारा सा मैं,
कभी इठलाती सी,
किनारे के कांधों पर सिर रखती तुम,
और सहलाता मैं,
कभी उद्वेलित हो,
मर्यादा लांघती तुम,
और निराशा से हताश देखता मैं,
कभी सिरहाने तो कभी सूखती सी बहती तुम,
आसमां में बारिश की टकटकी लगाता मैं,
फिर झूमकर,
पहाड़ों को चीरकर आती तुम,
फिर आगोश में लेने को गर्वाता मैं,
अनिल पुरोहित
पत्रकार, इंदौर
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