मैं पढ़ा-लिखा बेरोजगार हूॅं,
व्यवस्था के खिलाफ गुस्सा भरा है मेरे मन में,
गुस्से में मैंने उठा ली है कलम
और कलम मेरी कुल्हाड़ी सी चलने लगी है ।
लोग कहते हैं –
मैं बड़ा समझदार हो गया हूॅं
लेकिन सच तो यह है कि मैं पत्रकार हो गया हूॅं
मैं गणेश शंकर विद्यार्थी जी का चेला हो गया हूॅं ।
हाॅं – हाॅं नफरत भरी है मेरे अंदर सत्ता के खिलाफ
मैं जानता हूं कैसे भला होगा मेरे देश का
मैं अब इतना दिमागदार हो गया हूं ।
मुझे चाह नहीं विज्ञापनों की
कलम से है मेरी वफादारी
इसीलिए जी रहा हूं अभावों में,
मैं पढ़ा- लिखा बेरोजगार हूॅं…।
कहते हैं लोकतंत्र का चौथा स्तंभ पत्रकारिता है
परंतु अब यह भी सिक्कों की खनक में डगमगाने लगी है
संसद से सवाल करने के बजाय
संसद की चरण वंदना करने लगी है,
पत्रकारिता अब मरने लगी है ।
मुकेश कुमार ऋषि वर्मा
फतेहाबाद, आगरा