सिक्कों की खनक पर
सोने की चमक पर
बांट दिए हैं हमने
अपनी खुशियों और गमों के तराने।
जमीन को ना जाने
कितने कदमों में नापकर
उसको भी कई नामदार से
टुकड़ों में बांट दिया है हमने।
अभिव्यक्ति और संवेदनाओं को
अवसरवादिता का
मुखौटा पहना दिया है
हमारे विकसित होते से समाज में ।
हर चीज का
वर्गीकरण करके
खंड खंड कर दिया है
और खुद ही बेगाना सा हो गया है।
खुद ही खुद में
सिमट कर
ढूंढता सा जा रहा है
उन सोने के सिक्कों में ।
सामाजिक सुरक्षा
सच्चा प्यार
निश्चल रिश्ते
मासूम मुस्कुराहटों को।
खोया हुआ सा समाज
अभी नहीं बांट सका है वह
आकाश की असीमितता
सूरज का अनंत ताप
हवा की तरंगों को
पानी की समरसता को
चांद की ठंडी बयार को
और अनुभूतियों के
अनछुए से स्पंदन को।
स्मिता जैन