यूँ तो महबूब की आँखों में डूबता हूँ मैं
अपने सीने में दबा दर्द नापता हूँ मैं।।
उनकी साँसों में ही अब समाया हुआ
खुद को खुद में ही यूँ अब ढूंढता हूँ मैं।।
चाँद तारो की भी परवाह नही अब मुझको
उनकी नज़रो से गिर कर अब टूटता हूँ मैं।।
वो सफीने से मुझे दे रहा था कितनी सदा
मैंने खुद को समझ लिया कि नाख़ुदा हूँ मैं।।
जाने क्या दिल मे है उनके जो मुंह चिढ़ाते हैं
यूँ रोज़ रोज़ नए इम्तिहाँ से गुज़रता हूँ मैं।।
बादलो ने यूं अब मेरे साथ छेड़खानी की
सूखा मंज़र रहा ज़िन्दगी भर,अब नया हूँ मैं।।
ज़िन्दगी की कैद से अब रिहाई दे मुझे
तेरे बिना यूँ ज़िन्दगी में सिरफिरा हूँ मैं।।
यूँ शब-ए रात मुझसे यूँ मेरे साये ने कहा
“आकिब” तुझको अब ठिकाने लगा रहा हूँ मैं।
आकिब जावेद
बिसंडा,जिला-बाँदा