अस्तगामी सूरज की लाल किरणें जल का श्रंगार कर रहीं थीं वे भी शायद अस्ताचल की ओर प्रस्थान करने के पहिले अपने आपको पवित्र कर लेना चाहतीं थी । सूरज का लाल प्रतिबिम्ब शांत होती जा रहीं जल पर सुन्दर चित्रकारी जैसा उभर आया था एक दम लाल जिसमें अपनी दहक को शान्त हो जाने का आभास था जिसमें पवित्रता को ग्रहण करने की ललक थी । एक लकड़ी की नाव में बैठे कुछ यात्रियों ने बीचधार स ेगजुरते हुए लोटे में जल भर लेने का उपक्रम कर लिया था । ‘‘नर्मदे हर’’’ का जय घोष लहरों को भी कपायमान कर रहा था । एक लड़के ने अथाह जल राषि चुनौती स्वीकार कर ली थी और छलांग लगा दी थी ‘‘छपाक’’ की एक हल्की सी आवाज आई और उसने जल में बहते नारियल को अपने कब्जे में कर लिया था । वह दूर एक उंचे टीले पर खड़ा निहार रहा था लहरों को उसकी निगाहें अविरल, अविराम देख रहीं थीं स्वर्णिम सी आभा बिखेर रही नर्मदा रज को और कल कल कर बहती जलधार को । ओह……यही तो माॅ नर्मदा का अमृतमयी सौन्दर्य है । तेज प्रवाह और विषाल आकार सांझ के इस स्वरूप् में और भी सुन्दर लग रहा था सब कुछ । उपर नभ में अपने घौसलों की ओर लौटते पक्षी और जल में निर्भय होकर विचरण करते जलचर । माॅ की गेद तो निर्भयता का दर्पण होती ही है । माॅ……..क्या माॅ को ही पुकार रहीं हैं महिलायें ढोल नगाड़ा, झांझर बजातर हुईं
नरबदा मैया ऐसी तो मिली रे, ऐसी मिली रे,
जैसे मिल गई महतारी बाप रे !
नरबदा मैया ओ…………..।
माॅ के प्रति समर्पण का संदेष, माॅ के संग होने पर निर्भय होने का संदेष ‘‘जैसे मिल गई महतारी बाप रे’’ कितनी आत्मीय है इन देषी बुन्देलखंडी शब्दों में । दूर किसी कोन पर
जयकार का नाद चहुंदिषि गूंज रहा है ‘‘हर हर नर्मदे’’ ।
कोई कंटकीर्ण मार्ग पर दण्डवत लेट कर प्रणाम करता आ रहा है । लम्बी दूरी तय करने के बाद भी उनके तन पर थकान नहीं है पिछले 4 दिन से लगातार ‘‘सरें’’ भरते यात्रा में तल्लीन है स्त्री-पुरूष और उनका सहयोग करते बच्चे…….उनके चेहरे पर जीवतं हो रहे श्रद्धा-भक्ति और विष्वास के भाव………
‘‘मनौती मांगी थी………….मैया ने उसे पूरा कर दिया अब हम उनके प्रति आभार प्रकट करने जा रहे हैं……..’’ हाथ में जटायुक्त नारियल और पथरली भूमि पर पेट के बल दण्डवत……..एक उद्घोष ‘‘नर्मदे हर’’ । कितनी श्रद्धा है…..घुटनों छिल गए है चेहरा घूलघुसरित हो गया है पर न दुःख के भाव है और न वेदना के
अलक्ष्यलक्ष्य लक्ष पाप लक्ष्य सार सायुधं,
ततस्तु जीव जन्तुतन्तु भुक्तिभुक्तिदायकम् ।
विरन्चि विष्णु, शंकर स्वकीयधामवर्मदे,
त्वदीयपाद पंकजं नमामि देवि नर्मदे ।ं
भोग और मुक्ति प्रदान करने वाले तुम्हारे चरण कमलों को में प्रणाम करता हूॅ । नदी के
चरण कमल……..नहीं माॅ के चरण कमल…….नर्मदा तो माॅ हें न……माॅ के स्नेह की भी कोई पराकाष्ठा होती है……..उनके चरण तो कमल से ज्यादा सुन्दर और पवित्र होते हैं, इन चरण कमलों को प्रणाम करने के लिए स्तुति गाई जा रही है ।ै एक दम तट के किनारे बैठे कुछ लोग आरती गा रहे हैं ‘‘ऊॅं जय जगतानन्दी, मैया जय आनंद कंदी, ब्रम्हा हरिहर शंकर रेवा षिव हरि शंकर, रूद्री पालंती ।। ओम जय……….। ढोल नगड़ा बज रहे हैं और दीपो को जल में प्रवाहित करने का क्रम चल रहा है । सैंकड़ों दीप बहती जलधारा में बहते चले जा रहे हैं गंतव्य की ओर मानो सभी के कष्टों को, दुःखों को बहाकर ले जा रहे दूर बहुत दूर समुद्र की ओर माॅ तो चाहती है कि उसके पुत्रों पर कोई कष्ट न आये उसके पुत्र कभी दुःखी न हों…….इसलिए तो वह बहाकर ले जा रही है कामना पूर्ति की आकांक्षा से भरे दीपों को । निष्चल भाव से बहते दीपों की ज्योति से सारा तट प्रकाषित हो चुका है नयनाभिराम दृष्य तट पर दृष्टांकित हो चुका है नभ पर तारों के संग चन्द्रा अठखेलियां कर रहा है और धरा पर दीपों की माल के साथ माॅ नर्मदा भक्तों का दुःख हर रहीं हैं अलौकिक दृष्य, अविस्मरण्ीय दृष्य……….ऐसा तो प्रतिदिन होता है नर्मदा के तट पर……भक्तों की लम्बी कतार और श्रद्धा के भाव दीपों का समूह और जयकारा का उद्घोष……अमावष्या या पूर्णिमा पर यह दृष्य और भी ज्यादा जीवतं हो जाता है विषाल जनसमूह उनका कोलाहल और पवित्र जल के आचमन की ललक………….पर माॅ गंभीर बनी रहती है
महागंभीर नीरपुर पापधूत भूतलं,
ध्वनत् समस्त पातकारि दारिता पद्राचलमफ ।
जगल्लये महाभये मृकण्डुसूनु हम्र्यदे,
त्वदीय पाद पंकजं नमामि देवि नर्मदे ।।
माॅ गंभीर है । नर्मदा का अथाह जल जो कोलाहल के निःषब्द होते ही कलरव का मधुर संगीत प्रसारित करने लगता हेै इस संगीत में समाहित हो जाती है सप्त लहरियां……..माॅ की लोरियां….. यह केवल जलप्रवाह ही नहीं रह जाता है…..यह तो होती है माॅ के ममत्व की करूणा……………या नैर्सिंगक जगत की चेतना ………‘‘त्वदीय पादपंकजं नमामि देवि नर्मदे’’ का शंकराचार्य जी द्वारा किया गया उद्घोष । कुछ तो अलग है तभी तो ‘‘आनंद की नदी’’ याने नर्मदा कहा गया, चिर कुंवारी नर्मदा……..विधान के बंधन को तोड़कर पष्चिम से पूर्व की ओर बहने वाली मेकलसुता………उंचे-उंचे पहाड़ांे को अपने तेज प्रवाह से विख्ंाडित कर कूदती-फांदती आगे बढ़ती रेवा……
‘‘हर……हर …..नर्मदे……..’’
हाथ को उंचा उठाकर जयकारा लगाते कंठ………नंगे पैर कंटकीर्ण पथ पर सुमनपथ का अहसास करते परिक्रमावासी……..3 वर्ष 13 दिन की निरंतर गतिषीलता और ओंकारेष्वर स्थित महोदव का जलाभिषेक के साथ परिक्रमा की पूर्णता का गौरवषाली क्षण । क्या केवल नदी मानकर यह सम्पूर्णता पा सकता है कोई………..माॅ माना………माॅ के आंचल में आनंदनुभूति महसूस की ….माॅ के करूणमयी जल का आचमन किया……….
गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती ।
नर्मदे सिन्धु कावेरी जलेऽस्मिन् सन्निधि कुरू ।।
.माॅ के तट पर स्थित तीर्थें का दर्षन किया…..
सार्धत्रिकोटि तीर्थानि गदितानीह वायुना ।
दिविभुव्यन्तरिक्षे च रेवायां तानि सन्ति च ।।
असंख्य तीर्थो के दर्षन………जीवन धन्य हो गया ।
पुराण कहते हैं कि गंगाजी में स्नान करने का पुण्य और नर्मदा का मात्र दर्षन करने पुण्य दोनो बराबर हैं । 3 वष 13 दिन प्रतिदिन माॅ के दर्षन कल-कल बहते जल का आचमन
जीवन को तो धन्य होना ही था । हर घाट का अपना उत्सव मानो नर्मदा तो उत्सवों क तीर्थ ही बन चुकी हैं….हर उत्सव की अपनी संस्कृति…………हर उत्सव की अपनी परंपरा……..परंपरा में समाहित आस्था………आस्था में समाहित श्रद्धा………..विषाल भंडारा………पुड़ी हलुआ………केवल भोजन
नहीं है वह…….केवल भूखे का पेट भर देने का प्रदर्षन नहीं है वह……..तो प्रसाद है…….उसमें नर्मदा की अमृत जल का समावेष है…….उसमें नर्मदा की स्वर्णिम रज का समावेष है…….माॅ के स्नेह की आषीष की सम्पूर्णता है……..कितने ही लोग आकर परसादी ग्रहण कर लें पर भंडारा कभी खत्म होता ही नहीं…….माॅ की दिव्य उपस्थिति हर क्षण महसूस कर ली जाती है……..कई बार नर्मदा के जल में ही स्वदयुक्त पुड़ी तली जा चुकी है…….श्रम के स्वेद को उत्सर्जित किये बगैर महिलाओं का समूह निरंतर कार्य में व्यस्त है उनके चेहरे पर सुबह से सांझ तक दमकती रहती है ताजगी और आनंद की अनुभूति ।
नम्र्मदा नम्र्मदा सव्र्वमनोरथान्ददाति वै ।
कलौ तु नम्र्मदा देवी कल्पवृक्षै भनार्तिहर ।।
मेकल पर्वत श्रेणी की अमरकंटक पहाड़ियों से अवतरित होकर अपने स्वरूप् को विकसित करते जनसमुदाय को अपने पावन जल से अभिसिंचित करते गतिषलीता का प्रमाण बन अनेक ऋषि मुनियों की तपःस्थली को अंगीकार करते हुए अपने आभा मंडल से सभी का कल्याण कर रहीं हैं । सामवेद का प्रतीक और षितनया,षांकरी, रूद्ररेहा जैसे सम्बोधनों को स्वीकार करते हुए पुण्य दर्षना नर्मदा सदा सेव्या, सोमोद्भवा, सर्वस्व्या विविधाषब्द शक्ति से पोषित तीव्र प्रेरणाषक्ति समन्वित हैं ।
सविन्दु सिंधु सुस्खलत्तरंग अंगरजितं,
द्विषत्सुपाप जात-जात कारि बारि संयुतम् ।
कृतान्त दूत कालभूत भीतिहारि वर्मदे,
त्वदीय पाद पंकजं नमामि देवि नर्मदे ।।
अनेकानेक वर्षों से नर्मदा भक्ति-षक्ति और श्रद्धा के संगम का केन्द्र रही है पर अब कुछ गुम सा गया है……श्रद्धा नहीं गुम हुई……….विष्वास कम नही हुआ पर कुछ स्वार्थपरता ने इस पवित्रता को नष्ट करने का कुचक्र अवष्य रच दिया । आधुनिकता ने अपना माया जाल ऐसा फेंका कि ‘‘स्व’’ के आगे श्रद्धा पराजित हो गई । विकास ने ही विनाष की इबारत लिख दी और जिन पेड़-पौघों को गर्व था कि हम माॅ नर्मदा केी छत्र-छाया में जी रहे हैं वे नष्ट होते चले गए, बांध बनाने के चक्कर में संस्कृतियों को मिटाते चले गए । बांधों में पानी तो जमा होता गया पर पर हमारे विष्वास पर काई जमती चली गई । हमने नर्मदा जल में ‘‘स्नान’’ करने की बजाए नहाना प्रारंभ कर दिया साबुन को तन पर मल कर, हमने प्लास्टिक की थैलियों का ढेर लगा दिया तट पर हमने बासी-पुरानी पूजन सामग्री के उत्सर्जन का केन्द्र बना दिया आचमनीय जल को । आधुनिकता और परवान चढ़ी और हमारे शौचालयों के अंतिम गेट जल की दिषा में खुलने
लगे, हमारी फैक्ट्रियों का दूषित जल नर्मदा के बहते जल की ओर बहने लगा । क्या यही हमारे विकास की परिभाषा है, क्या यही हमारे अंधानुकरण का उदाहरण है । जिस जल को हथेलियों में भरकर हम ईष्वर के प्रसाद की अनुभूति करते रहे हैं क्या उसमें गंदगी फैलाकर हम साहसिक काम कर रहे हैं……..कल जब सह जल गंदगी से दूषित हो जायेग तब हमारा तो आचमन करना भी कठिन हो जायेगा………फिर कैसे होगा पंरपराओं का निवर्हन……..क्या हम स्वंय ही प्रकृति के भौतिक अस्तित्व को विनाष की दिषा में नहीं ले जा रहे हैं…………क्या हमार अहंकार हमारे ही विनाष का कारण नहीं बन रहा है……क्या उपभोक्तावदी संस्कृति विनाष की संस्कति में परिवर्तित नहीं हो रही है………..मर्यादाओं की सीमा का उल्लंघन नहीं कर रहे हैं….मान्यताओं और अवधारणाओं को बलिवेदी पर नहीं चढ़ा रहे हैं हम……..ओह…..स्वार्थ की पराकाष्ठा………..हम स्वंय ही अपने लिए हलाहल पैदा कर रहे हैं…….अपने ही सेवन के लिए……….यह समझते हुए भी कि हमारे कंठ में षिवजी का वास नहीं है,,,,,,,,,,यह जानते हुए भी कि हमें अमरत्व का वरदान नहीं मिला है………यह जानते हुए भी कि प्रकृति के उपहरों के संरक्षण का ही दायित्व हमारे हिस्से में आया है न कि उसको नष्ट करने का……….प्रदूषित हो रहा है जल………..भयभीत हैं जलचर…….क्या जलचर के न होने की परिस्थितियों को ज्ञान हम कर पाये हैं……… क्या हम स्वंय भी जल के बिना रह सकते हैं……जी सकते हैं……..क्या बोतलों में बद पानी ही हमारे जीवन को बचाने के लिए पर्याप्त है………..पर वो भी कितने दिन शेष रहा आयेगा………फिर जल को तो हम बना नहीं सकते और जल के बनिा जी भी नहीं सकते………..याने हम स्वंय अपनी कब्र खोदने का काम करते जा रहे हैं……..? प्रष्न तो अनेक हैं पर उत्तर नदारत हैं । केवल मौन हमारे प्रष्नों का उत्तर नहीं हो सकता और न ही जब आप भविष्य में कठघरे में खड़े होगें तब मौन साथ देगा । जागना होगा हमें ताकि नर्मदा बचे…….जल बचे……….प्रदूषण से मुकित मिले और हमारे चेहरों पर खिलने वाली मुस्कान को अमरत्व मिले ।
वैसे तो संक्राति आने के कुछ दिन पहले से ही छोटू पीछे लग जाता था
‘‘अम्मा इस बार कुछ ज्यादा लड्डू बनाना महिनों तक खा सकूं ।’
‘‘हाॅ रे बना दूंगी इतने सारे कि तू दिन भर खाते रहना’’
‘‘देखो में वो बूंदी वाले लड्डे भी बनाना’’
और वह बड़े उत्साह से पन्द्रह दिन पहले से ही लड्डू बनाने की तैयारी में जुट जाती । वह जानती थी कि छोटू को और मुनिया को दोनों को लड्डू बहुत पसंद है । मुनिया तो फिर भी छोटू के कारण लड्डू कम ही खा पाती पर छोटू स्कूल जाते समय औ लौटकर लड्डू ही मांगता । जब तक छोटू के पिताजी जिन्दा रहे वे हर मकरसकां्रति पर पूरे पिरवार को लेकर नर्मदा घाट जरूर जाते थे ।
‘‘हम नर्मदा मैया की छत्र-छाया में रहते हैं तो उनका दर्षन तो हमें करना ही चाहिए न’’ कहकर साईकिल पर दोनो बच्चों को बिठा देते और हम दोनो पैदल चलकर नर्मदा घाट पहुंच जाते । नहाते, पूजा-पाठ करते फिर वहीं दाल बाटी बनाते । वे तो घाट पर फैले कचरे को समेटने में लग जाते और में बच्चों को लेकर मेला घूमने लगती । जब तक सारे घाट की सफाई नहीं कर देते तब तक उन्हें चैन नहीं आता
‘‘देखो कितना कचारा फैला दिया है चारांे तरफ, लोग जरा भी नहीं सोचते कि वे पुण्य कमाने आये हैं या नर्मदा मैया में गंदगी फैलाने’’।
‘‘अरे आप तो रहने दो लोग अपनी श्रद्धा से पूजा करते हैं नारियल फोड़ते हैं, यह रिवाज तो जाने कब से लला आ रहा है’’
‘‘तब लोग कम थे पर अब भीड़ तो देखो और नर्मदा मैया का पानी जगह-जगह रोका भी जाता है, तेज प्रवाह रहता था तो सारा कचरा बह जाता था पर अब वह वहीं जाम होकर रह जाता है’’ । उनकी नाराजगी बढ़ती जा रही थी ।
शाम को हम लोग लौटते । मुन्ना के हाथों में एक खिलौना होता और मुनिया के हाथों में चकरी जिसे वह रास्ते भर चलाती आती ।
बच्चे बड़े होते जा रहे थे पर सक्रांति का उत्साह कम नहीं हो रहा था । ये तो अमावष्या और पूर्णिमा के दूसरे दिन नर्मदा घाट अवष्य जाते
और कचरा इकट्ठा कर जला आते । ऐसे समय वे बच्चों को नहीं ले जाते थे । संक्राति पर बच्चों को ले जाने का क्रम भी नहीं टूटता था । उस साल भी हम लोग संक्राति पर मेला गए थे । हर बार की तरह इस बार भी पूजा-अर्चना की मेला घूमा । शाम को जब हम लौअ ही रहे थे कि ‘‘बचाओ….बचाओ ……..’’ की आवाज ने हमारे कदमों को रोक दिया । नर्मदा मैया के अथाह जल में एक बच्चा डूब रहा था और किनारे खड़े उसके परिजन असहाय भाव से मदद की गुहार लगा रहे थे । पानी में डूबता बच्चा एक क्षण के लिए ऊपर आता फिर पानी में समा जाता । बच्चा रो रहा था उसक माॅ-बाप बचाओ……बचाओ चिल्ला रहे थे । घाट पर खड़ा अपार जनसमूह मूक दर्षक बना था । इन्होने साईकिल को मेरे हवाले किया और नदी में छलांग लगा दी ‘‘छपाक…….छपाक…..’’ की आवाजों के साथ वे तैर कर उस बच्चे के पास पहुेच चुके थे । उन्होने एक हाथ से बच्चे को पकड़ा और एक हाथ से तैरते हुए वे किनारे की ओर बढ़े । ऐन किनारे के पास ही उनका पैर नदी में फेंके किसी कपड़े में जा उलझा । उन्होने बहुत मेहनत की पर वे अपने पैर को उस कपड़े से नहीं छुड़ा पाए अब वे पानी की तेज रफ्तार में बहने लगे थे । अपने को यूं बहते देख उन्होने जोर से बच्चे को किनारे की ओर उछाल दिया । इसके चक्कर में उनका संतुलन और बिगड़ गया था । अब वे पूरी तरह पानी की अथाह और तेज लहरों में समाते चले जा रहे थे । मैं किनारे खड़े लोगों से मदद की गुहार लगा रही थी पर कोई मदद करने को तैयार नहीं था । मैं अपने बच्चों की ऊंगली पकड़े वहीं बैठी रही थी रात भर इस इंतजार में कि नर्मदा मैया हम पर कृपा करेगीं और ये सुरक्षित वापिस आ जायेगें ।
दूसरे दिन शाम को इनका निर्जीव शरीर तैरता दिखा था । मेरी तो चीख ही निकल गई थी । छोटू और मुनिया मुझसे जोर से चिपक गए थे । नाव ख्लाने वालों ने उस निर्जीव शरीर को बाहर निकाला था । उनके दोनो पैर किसी के द्वारा फेंके गए कपड़े में उलझे थे । मेरे कानों में रह-रह कर उनके शब्द गूंज रहे थे
‘‘देखो ये नर्मदा मैया को कचरादान समझकर कुछ भी फेंक देते हैं किसी दिन ये कचरा ही किसी की जान का दुष्मन साबित होगा ’’
इस कचरे ने इनकी ही जान ले ली थी ।
कुशलेन्द्र श्रीवास्तव