मैं तनहा होता जाता हूँ,खुद पर रोता जाता हूँ,
मैं संस्कार का वृक्ष हूँ, खुद को ढोता जाता हूँ।
कुछ हवा विषैली है आई,लोगों की मति है भरमाई,
कुछ पाश्चात्य का दोष है,कुछ मुझसे भी इन्हें रोष है।
मैं मर्यादा का पोषक हूँ,निज संस्कृति का उदघोषक हूँ,
मैं आत्मशक्ति का साधक हूँ,मन की राहों का बाधक हूँ।
मैं खुद में एक पर्व हूँ,मैं भारत का गर्व हूँ,
मैं आदर्शो का दीप हूँ,उन्मुक्तता के विपरीत हूँ।
मैं गीता के श्लोकों से लेकर,गाँधी तक गुणगान हूँ,
जो झुकना सीखा ही नहीं,उन संघर्षो का गान हूँ।
मैं तेरी माता की शिक्षा,पिता का दिया विचार हूँ,
मैं तुझमे ही रहने वाला,तेरा संस्कार हूँ।
#प्रवीण द्विवेदी
परिचय : प्रवीण द्विवेदी उ.प्र के बाँदा में रहते हैं और शौकिया लिखते हैं। आपने हिन्दी से एमए किया है,साथ ही बीएड भी शिक्षित हैं।