नज़र में हो कोई मुश्क़िल ज़माने की ग़ज़ल कहना,
बहुत घबरा रहा हो दिल ज़माने की ग़ज़ल कहना।
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हमारी भूख के किस्से तुम्हारे इश्तिहारों में,
तुम्हें लगने लगें बोझिल ज़माने की ग़ज़ल कहना।
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नज़र में दूर तक केवल समुंदर ही समुंदर हो,
दिखाई दे नहीं साहिल ज़माने की ग़ज़ल कहना।
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सभी के हाथ में पत्थर, निशाने पर तुम्हारा सर,
कभी हो जाए जो चोटिल ज़माने की ग़ज़ल कहना।
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कभी रहने नहीं देगा ज़माना चैन से तुमको,
लगे जब ज़िंदगी क़ातिल ज़माने की ग़ज़ल कहना।
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हरे होने लगें जब जब जिगर के ज़ख़्म दुनिया में,
हो सबके दर्द में शामिल ज़माने की ग़ज़ल कहना।
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किसे फुर्सत कि वो देखे किसी के पाँव के छाले,
बसाकर आँख में मंज़िल ज़माने की ग़ज़ल कहना।
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फ़साने कह चुके हो सैकड़ों रुख़्सार के तिल के,
सजे अब जब कभी महफ़िल ज़माने की ग़ज़ल कहना।
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तुम्हें सुनता न हो कोई समझता भी न हो कोई,
ज़माना ख़ुद में हो ग़ाफ़िल ज़माने की ग़ज़ल कहना।
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मुकद्दर के भरोसे कुछ नहीं मिलता यहाँ ‘गुलशन’,
अगर करना हो कुछ हासिल ज़माने की ग़ज़ल कहना
#राकेश दुबे ‘गुलशन’