गठरी लेकर ही तो
निकला था वह घर से
क्या घर था वह!
हाँ,घास-फूस की टपरिया भी
तो घर होती है
जिसमें माँ-बाप
भाई-बहन के साथ
भूख रहती है
बेबसी रहती है
विवशता रहती है
बेचैनी रहती है
तभी तो
माँ-बाप को छोड़कर
जैसा भी था
अपना था उस
घर-संसार को छोड़
दाता के भरोसे पर
यदि है वह तो
निकल पड़ा था
गठरियों के साथ
यहाँ भी पेट था
पेट में एक गठरी थी
जिसमें भूख थी
तभी तो वह
पेट में रखी गठरी
और सिर पर रखी गठरी लेकर
निकल पड़ा था
रोजी-रोटी की जुगाड़ में
जब रोजी-रोटी ही छीन गई
चल पड़े वापस अपनी गठरी लेकर
बिना डरे मौत की आहट से
अपनी माटी का मोह पाले
लेकिन
किसको पता था
चलते-चलते
बिछ जाएंगे पटरियों पर
और खुद ही
बन जाएंगे गठरी
और गठरी बनकर ही
पहुँचेंगे अपने गाँव
अपनी माटी
अपने देस
भूख की गठरी को
छोड़कर पटरियों पर!
डॉ प्रदीप उपाध्याय
देवास (म.प्र.)