पगडंडियां ठेकेदार नहीं बनाते
इनके लिए आवंटित नहीं होता कोई बजटइसलिए इनमें रुचि नहीं होती किसी नेता, इंजीनियर या बाबू की पगडंडियां बनती है। कुचले जाने से नरम घास
दोपाये या चौपाये के पैरों तले
वे सींची जाती है कांटे और कंकर चुभे पैरों से रिसते खून से कूटी जाती खड़खड़ाते दुपहिया वाहनों तले पगडंडिया जरूरी नहीं। सार्वजनिक जमीन पर हो
लेकिन जब ये आम रास्ता हो जाती है, तो लार टपकने लगती है
नेता और अफसरों की तब ये पगडंडियां सड़क बन जाती है।
उसी तरह जैसे गाँव की अल्हड़ बाला बहक कर जब शहर आती है तो नगरवधू हो जाती है ।
दिलीप जैन, उज्जैन
परिचय-
दो उपन्यास प्रकाशित
कविताएं एवं लघुकथाएं पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित
उज्जैन (मध्यप्रदेश)