तुमको जाना दूर बहुत है,
पर मेरी तो रात यहीं है।
तुम क्या जानो,
हमने कितने
झंझा के
पँखों को नोंचा
चक्रवात में..
फंसकर हमने
खुद पर कैसे,
मौन उलीचा।
तेरा मन तो क्रूर बहुत है,
झर-झर गिरते पात यहीं है।।
दोपहरी में,
खिला फूल-सा
झंझावात में
उड़ी धूल#सा,
लहरों से विक्षत
दुकूल-सा,
मरुथल में
जीता बबूल-सा।।
मेरा मन मजबूर बहुत है,
पर मेरी हर बात यहीं है।।
सागर से,
अम्बर तक चलते
मुट्ठी में तुम,
बूंद समेटे
प्रतिध्वनि
सस्मित में फूटी
चम्पई-चम्पई,
धूप लपेटे…।
तेरी हठ भरपूर बहुत है,
मेरा तो प्रभात यहीं है।।
#सुशीला जोशी
परिचय: नगरीय पब्लिक स्कूल में प्रशासनिक नौकरी करने वाली सुशीला जोशी का जन्म १९४१ में हुआ है। हिन्दी-अंग्रेजी में एमए के साथ ही आपने बीएड भी किया है। आप संगीत प्रभाकर (गायन, तबला, सहित सितार व कथक( प्रयाग संगीत समिति-इलाहाबाद) में भी निपुण हैं। लेखन में आप सभी विधाओं में बचपन से आज तक सक्रिय हैं। पांच पुस्तकों का प्रकाशन सहित अप्रकाशित साहित्य में १५ पांडुलिपियां तैयार हैं। अन्य पुरस्कारों के साथ आपको उत्तर प्रदेश हिन्दी साहित्य संस्थान द्वारा ‘अज्ञेय’ पुरस्कार दिया गया है। आकाशवाणी (दिल्ली)से ध्वन्यात्मक नाटकों में ध्वनि प्रसारण और १९६९ तथा २०१० में नाटक में अभिनय,सितार व कथक की मंच प्रस्तुति दी है। अंग्रेजी स्कूलों में शिक्षण और प्राचार्या भी रही हैं। आप मुज़फ्फरनगर में निवासी हैं|