प्रकृति की सुरम्य वादियों में विंध्याचल की शिखर माला के मध्य एक शांत बस्ती के मेहनतकश लोगों के बीच, उसी वनांचल में जामगढ़ का एक किला था। वहाँ का राजकुमार अपनी बहादुरी और सुंदरता के लिए बहुत प्रसिद्ध था। वनांचल ही नहीं,तलहटी के नर्मदा अंचल में भी उसकी बहादुरी के चर्चे मशहूर थे। कई मर्तबा उसने बस्ती पर हमला करने वाले जंगली जानवरों से वनवासी लोगों की रक्षा की थी। बाहरी तत्वों को भी उसने कभी वनक्षेत्र पर कब्जा नहीं करने दिया था।
इसके बावजूद अपने भाइयों की तरह, उसे न तो कभी वन्य प्राणियों का शिकार करना पसंद था, न ही उन्हें बंधक बनाकर उनका उपभोग करना पसंद था। राजकुमार का वास्तविक नाम तो कोई नहीं जानता था। लेकिन हष्ट पुष्ट स्वस्थ और अच्छी कद काठी के लिए राजकुमार को लोग ‘वनकुमार’ के नाम से पुकारते थे। क्योंकि वह सदैव वन से निकल कर आता और सूरज ढलने के साथ ही वन क्षेत्र में प्रवेश कर जाता था। सागवान, कालिया, नीम, आंवला, गोंद, धावड़ा, बबूल आदि से आच्छादित विंध्याचल से निकल कर वनकुमार रेवा के तट पर आ ही जाता था। घण्टों किनारे विचरण करता, नौका विहार करता था। और शाम ढले पुनः सुरम्य वादियों में समा जाता था। जैसे पूर्वांचल से सूरज निकल कर, अपनी संपूर्ण ऊर्जा, उत्साह, आलोक, उन्माद की छटा बिखेरता हुआ, अस्ताचल की गोद में संमा जाता था। वनकुमार का यह क्रम निरंतर सूर्य के आगमन की तरह जारी था। कभी नौका विहार करता, तो कभी दिन भर नौका में ही सवार जलीय जीवों को चने दाना खिलाना , उनके साथ खेलना और उनमें खो जाना नित्य का कर्म था। कभी रेवा तट पर घंटों बैठकर तरल ब्रह्म स्वरूपा मां नर्मदा के स्वच्छ, निर्मल, धवल स्वरूप को निहारना और जल तरंगों से नर्मदा देवत्व स्वरूप की उपस्थिति, अनुभूति को महसूस करता था। ध्यानयोग में चला जाता। जब ध्यानावस्था भंग होती तो, उसका मन आनंदित हो जाता था।
वनकुमार के रूप सौंदर्य से वनांचल की वनवासी युवतियों ही नहीं रेवांचल क्षेत्र की नव-यौवनाएं भी उसे अपने सपनों का राजकुमार बना बैठी थी। लेकिन इन सब से अनभिज्ञ वनकुमार का नित् नर्मदा के प्रति आकर्षण बढ़ता ही जा रहा था। यह सब बात वनकुमार के पिता को अनचाही कचोट दे रही थी। पिता उसे जामगढ़ की व्यवस्था सौंपना चाहते थे। पुत्र का अन्यत्र जाना, उन्हें पसंद न था। पिता की लाख रोक-टोक के बाद भी वह अश्वारूढ़ होकर प्रतिदिन पहाड़ों से उतर कर रेवा तट की ओर चला आता था।
जैसे रेवा उन पहाड़ियों से पोषित होकर कलकल लहराती इठलाती बहती चलती है।, उसी तरह वनकुमार रेवा जल से पोषित प्रफुल्लित और पुलकित होता था। रेवा के समतल शांत जल पर उसकी विचलित मनःस्थिति, निश्छल विचरण करते प्रश्नों का उत्तर मिल जाता था। वह नर्मदा का आश्रय पाकर अपना सब कुछ समर्पित करने को तैयार था।
किंतु पिता के मन में, जाने कौन सी शंका ने घर कर लिया था।
“वनकुमार किसी मुसीबत में तो नहीं फंस गया हो!” या ‘अपना युवा दिल किसी अन्यत्र बिरादरी में न दे बैठा हो।’ उस संपूर्ण क्षेत्र में वनकुमार के लिए हर नव-बाला, नव युवती के दिल के द्वार सदैव खुले रहते थे।
पिता के मन में वनकुमार का विवाह करने का विचार आया। वनवासी,बिरादरी की योग्य कन्या कुमार को पसंद कर ले। इस आशय से उसने स्नेह मिलन के पावन पर्व वसंत उत्सव का आयोजन जामगढ़ में आयोजित किया। वन क्षेत्र के सारे सरदार,रियासतदार अपनी अपनी रियासत की नवयुवतियों को साथ लेकर उस समारोह में उपस्थित हुए। लेकिन वनकुमार का मन इन सब बातों से कोसों दूर,अपनी अध्यात्मिक साधना शक्ति, चिंतन मनन में लगता था। और वह उसी में मस्त रहता था। आज वह अनमने मन से उत्सव में उपस्थित तो था, पर उसके ध्यान में नौका विहार के साथ साथ ही वन्यजीवों, मछलियों की अठखेलियां याद आ रही थी। वह अपने आप को रोक न सका और वसंतोत्सव, वन संपदा के बीच उन्माद और आनंद की उस मधुर बेला को छोड़ कर वनकुमार रेवा तट पर चला गया। नौका विहार कर, जल क्रीड़ा करती मछलियों को देख आनंद विहार हो गया था। आज उसने अचानक क्या देखा! एक बड़ी सी मछली उसकी नौका के नजदीक आकर नोका के साथ साथ तैरने लगी। वनकुमार उसे चने डालता चला जाता था। आहार ग्रहण करती हुई नौका के पीछे-पीछे चल रही थी। अब यह उपक्रम महीनों तक प्रतिदिन चलता रहा। एक दिन उस मछली ने जल से ऊपर आकार वनकुमार के हाथों से सीधे अपना आहार ग्रहण कर लिया। उसके स्पर्श से वनकुमार प्रफुल्लित और आनंदित हो गया था। आज उसकी निगाह मछली के संपूर्ण स्वरूप पर पड़ी, कुमार यह देखकर आश्चर्यचकित हो गया, कि वह मछली नाक में नथ पहने हुए थी। यह देख उसके होश उड़ गये। वह मछली का स्पर्श पहचानता था। कि यह वही मछली है जो कई महीनों से उसके साथ साथ जल विहार कर रही थी। लेकिन उसने मछली के नथ वाले रूप को पहली बार ही देखा । “क्या यह दूसरी मछली थी?”
‘नहीं-नहीं यह वही मछली है! “मैं इसके स्पर्श को भली भांति जानता हूं।” घर लौटते हुए अद्भुत सा महसूस कर रहा था। आज उसे नींद नहीं आई। रात्रि भर करवट बदलते हुवे मछली के ख्यालों में ही खोया रहा। उसे अपनी आंखों पर भी यकीन नहीं हो रहा था। उसे पुनः देखने के लिए वह लालायित हो उठा था। आज सूर्योदय के पूर्व ही वह अपने श्वेत-अश्व पर आरुढ़ होकर नर्मदा के किनारे पहुँच गया था। तट पूरा सुनसान था। धीरे धीरे अरुण पूर्वांचल से झांकते हुए, रेवा तल पर स्वर्ण कांति बिखेरने लगा था। और स्वर्णिम आभा प्रकृति को दैदिप्तमान कर रही थी। पंछियों का कलरव आकाश मार्ग से विचरण करता हुआ अल्हादीत हो रहा था। जिसकी परछाई का साक्षी रेवा जल दर्पण बना हुआ था। लेकिन वनकुमार का मन एक ही जगह केंद्रित हो गया था। वह नौका पर सवार हो नथ वाली मछली की एक झलक देखने की अभिलाषा में सुबह से शाम विहार करता रहा। किंतु आज उसे निराशा ही हाथ लगी। देर रात्रि तक वन प्रदेश की झाड़ियों में कब, कैसे प्रवेश किया? कोई नहीं जानता था। वनकुमार उदास निढ़ाल अपने घर पर ही आज देर तक सोता रहा, तो पिता ने बेटे को प्रातः अपने घर ही देख प्रसन्नता व्यक्त की। बेटे से पिता की यह मुलाकात बहुत दिनों बाद हुई थी ।
” बेटा समारोह में कोई कन्या, तुम्हें पसंद आई हो तो हमें बता दो?” ‘हम तुम्हारे विवाह की बात आगे चलाएं?’ किंतु पुत्र के मन में,उसकी आंखों की गहराई में तो वह नथ वाली मछली तैर रही थी! वह पिता का अपमान भी नहीं करना चाहता था। इसलिए कोई उत्तर दिए बिना रेवा तट पर चला गया।
आज वह फिर कभी न लौटने का मन बना कर गया था। उस मछली को न देख कर उसके मन में अनेक शंका कुशंकाएं बलवती हो रही थी! ” किसी मछुआरे ने तो उसका शिकार न कर लिया हो?’
उसे बहुत तलाश किया। वह किनारे के लोगों से नथ वाली मछली के बारे में पूछता और मारा- मारा उसकी तलाश में फिरते रहता था। यह बात जानकर ‘नथ वाल मछली’ को पकड़ने के लिए मछली व्यापारियों में होड़ सी लग गई थी। किंतु स्थानीय राज-दरबार में चमत्कारिक मछली की चर्चा के बारे में मालूम पड़ा, तो दरबार से रेवांचल के मछुआरों को नर्मदा में मछलियों के शिकार पर रोक लगवा दी। और रेवा के उस भक्त वनकुमार को दरबार में आश्रय भी प्राप्त हो गया था। वह प्रतिदिन सूरज की पहली किरण के साथ चमचमाती स्वर्णिम लहरों के बीच अपने लक्ष्य की तलाश में निकल जाता था। सूर्य अस्ताचल में विश्राम करने चला जाए , परन्तु वनकुमार की तलाश जारी रहती थी। उसका मन कभी-कभी करता था, कि ‘वह स्वयं रेवा जल में उतर कर उसकी खोज करें।’
एक शाम हताश उदास वनकुमार महिष्मति के सुरम्य घाटों पर रेवा-जल में सीढ़ियों पर पाँव डालें चिंतन में खोया हुआ था। तभी अचानक एक मछली ने उसके पास आकर स्पर्श किया और उसका ध्यान टूटा। “कुमार तुम मेरे ही विचारों में खोए हुए थे।” उसने चारों और घूम कर देखा दूर-दूर तक सन्नाटा के अतिरिक्त कोई नजर नहीं आ रहा था! सोच में पड़ गया “यह किसकी आवाज़ थी, जो मेरे कानों में मधुर मिश्री घोल कर, मेरी तंद्रा को तोड़ गई।’ मानव स्वर सुनकर हक्का-बक्का वनकुमार की निगाह पानी की ओर गई। तो देखा वह नथ वाली मछली उसके सामने थी!
“कुमार, हां! मैं ही तुमसे बात कर रही हूं।” ‘तुम इधर-उधर किसे खोज रहे हो?’ ‘तुम्हारे मन में तो मैं ही बसी हूं।’ और ‘मुझे सामने देखकर भी पहचान नहीं रहे हो?’ मछली जल से काफी ऊपर आकर फिर बोली-‘बन कुमार तुम मेरे साथ जलविहार करोंगे। जैसे किसी ने वीणा के तार झंकृत कर, आनन्द द्वार खोल दिये हो, जिसकी तलाश बेसब्री से कर रहा था। उसके अभिवादन प्रस्ताव को वह कैसे ठुकरा कर, इंकार कर सकता था। नौका पर सवार होकर वह नथ वाली मछली के साथ चलने लगा। नदी के मध्य एक उथले टीले पर वह ले गई। जल से अर्ध भाग जल के ऊपर कर मछली मानवी भाषा में वनकुमार से मन की बातें करते करते भावविभोर हो गई थी, कुमार के भी ऐसे ही हाल थे। बातों ही बातों में पूर्ण रात्रि व्यतीत हो गई। सूर्योदय के साथ मछली ने लौटने की अनुमति चाही । वनकुमार उदास हो गया। वनकुमार उसे रोकना चाहता था, किंतु उसे इसी स्थान पर कल शाम को मिलने का आश्वासन देकर वह नथ वाली मछली गहरे पानी में चली गई। लेकिन जाते-जाते वह अपनी नथ वनकुमार को निशानी के रूप में दे गई थी। वनकुमार असमंजस में था। मैं कल्पना लोक में विचरण कर रहा हूं या मछली का बतियाना वास्तविक था। जो भी हो वनकुमार रोमांच से भर गया था। फिर नथ को भी झुठलाया नहीं जा सकता था। कुछ भी उसके बस में कहा था। वह नथ लेकर किनारे आ गए। आज दिन की ढलान उसे कोसों लंबी लग रही थी। दिन भर भुवन भास्कर से जल्दी अस्त होने की अनुनय विनय कर रहा था। किन्तु सूरज ढलने का नाम नहीं ले रहा था। एक एक क्षण उसे सालों सा प्रतीत हो रहा था। एक व्याकुलता उसके चेहरे पर प्रतीत हो रही थी। शाम ढलने से पूर्व नौका पर सवार हो टीले के पास पहुंच गया था। वनकुमार अनेक मछली को छूकर उनसे बातें करने की कोशिश करता। लेकिन सब बेकार हो जाता। आखिर उसका इंतजार पूर्ण हुआ। और वह नथ वाली मछली टीले के नजदीक आई तो पूनः नथ पहने हुए देखकर कुमार आश्चर्यचकित हो गया। मन ही मन मछली को वह चाहने लगा था, पर वह यह भी जानता था कि यह कैसे संभव हो सकता है? मछली से उसने पूछा-’तुम तो नथ मुझे दे गई थी फिर नथ ??? उतारने के बाद——
मछली उसके मन की बात ताड़ गई थी। वह बोली-नहीं मेरे राज कुमार अभी मेरी नथ नहीं उतरी है, इसका अधिकार केवल तुम्हें ही दे सकती हूँ। यदि तुम चाहो तो यह संभव है!’
ऐसा कहकर मछली ने वनकुमार के सामने अपने विवाह का प्रस्ताव रख दिया। हतप्रद वनकुमार की आँखें खुली की खुली रह गई। स्वर कंठ प्राण होने लगे।’ निःशब्द ,स्तब्ध हो उसे देखता रहा। ‘यह कैसे संभव है?’
“जल-सुंदरी” उसी समय नथ वाली मछली ने सोलह श्रंगारित नवययौवना के रूप में कर वनकुमार के सामने प्रकट हो गई। उसने कभी स्वप्न में भी इतनी सुन्दर स्त्री को नहीं देखा था। साक्षात मेनका सी लग रही थी। वनकुमार उस “जल सुंदरी” का रूप लावण्य देखकर अचेत हो गया। मूर्छा खुलने पर देखता है। न नौका है, न नदी का किनारा है, न कोई टीला! न आसमान के सितारे नजर आ रहे हैं। वह ‘जल सुंदरी’ के साथ जल मार्ग से विचरण करते हुए, एक जल महल में प्रवेश कर रहा था। अपनी आंखों को मसलते हुए उस मार्ग की चकाचौंध मणियों जड़ी- इमारत को देख कर आश्चर्यचकित हो गया। महल में अर्ध नारी अर्ध मछली रूप में दासीयों को देखकर उसके सोचने समझने की शक्ति शून्य हो गई थी। वनकुमार अब किसी दूसरी दुनिया में चला गया था। वही नथ वाली मछली, उस महल की राजकुमारी थी। जिसके साथ वनकुमार का विवाह हो गया। और उसके साथ वह उसी महल में रच बस गया था।
इधर वनकुमार की तलाश में वनराज ने कोई कसर नहीं छोड़ी। पुत्र की तलाश में रेवा तट पर पहरे लगा दिए थे। बहुत पूछताछ की। समय बीतता चला गया। वनराज के पुत्र से बिछड़ना से उपजे मन के जख्म समय ने भर दिए थे। अंतिम समय में वनराज को बेटे की याद सताने लगी। वह बड़ा विचलित होकर पुत्र को याद कर रहा था। उसका शरीर भी जर्जर हो गया था।
“जल सुंदरी” वनकुमार आनंदमयी जिंदगी में जल महल में समय व्यतीत कर रहे थे। अब दोनों के जीवन में खुशियों का पदार्पण हुआ। और ‘जल सुंदरी’ ने एक मच्छ-कन्या को जन्म दिया। महल में खुशियों की लहर दौड़ गई। पितृत्व भाव से उत्पन्न वनकुमार बेटी को बड़ा स्नेह दुलार देने लगा ।
और बिटिया उसके आंगन में खुशियों की फुलवारी लेकर आई थी। किंतु पितृ भाव जागते ही वनकुमार को अपने पिता के परिवार की याद सताने लगी। और उसने जल सुंदरी से अपने घर लौटने का प्रस्ताव रखा। वह जानती थी कि जिस दिन उन दोनों के बीच कोई तीसरा आ जाएगा, वनकुमार का मोह भंग हो जाएगा। वह चाहे स्वयं की संतान ही क्यों न हो।
उसे जल सुंदरी ने दुखी मन से विदाई देते समय एक नथ वाली डिबिया दी। और वनकुमार से एक वादा लिया कि यह नथ तुम बेटी की शादी में आकर उसे पहनाकर उसके ससुराल विदा करना। वनकुमार वादा करते हुए अपनी पत्नी और बेटी से विदा लेकर अपनी दुनिया में आ गया।
नर्मदा के उसी मध्य टीले पर मछुआरों को अर्ध चेतन अवस्था में एक बूढ़ा पड़ा हुआ दिखाई दिया। जिसे लेकर वह किनारे ले आये। उसे कोई पहचान भी न सका था। होश आने पर वह विंध्याचल की और लौटा तो एक सदी बीत चुकी थी। वनांचल अब बस्तियों में तब्दील हो गया था। उसके पिता और भाई इस दुनिया से पलायन कर गए थे। युद्ध की विभीषिकाओं में उसका घर परिवार स्वाहा हो गया था। वह रेवा तट पर आया। वह अपनी पत्नी-बेटी के पास पुनः लौट जाना चाहता था। लेकिन उस टीले के आगे उसे अपनी बेटी और पत्नी के निवास का मार्ग तक ज्ञात न था। उस मार्ग से अनभिज्ञ अनजान कई दिनों तक उस टीले पर पत्नी का निर्थक इंतजार करता रहा। सब कुछ हाथ से फिसल जाने के बाद अब वह अनजान मार्ग पकड़ रेवा के किनारे किनारे मैंकल की कंदराओं में प्रवेश कर गया। माँ रेवा की अमृत छवि आंखों में बसाकर, शिव सुता की आराधना को लक्ष्य बनाकर,मैकल पर्वत की वादियों में घोर तप में लीन हो गया। वर्षो वर्ष बीत जाने के बाद एक दिन माई की बगियाँ में, किसी सुंदर कन्या ने उसका ध्यान भंग किया। स्वच्छ धवल कंचन बाला का तेजस्वी स्वरूप देख कर वनकुमार की आँखे खुली की खुली रह गई। अपनी आंखों में योग साधना की शक्ति से दिव्य तेज आत्मसात का विनम्र प्रार्थना मुद्रा में दिव्यता के दर्शन कर रहा था। कन्या बोली - ‘मैं तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न हूँ कुमार!’
तुम्हारी मुक्ति का समय नजदीक है,किंतु पहले तुम्हें अपना फर्ज पूर्ण करना होगा लो यह तुम्हारी बेटी इसे आशीष देकर विदा करो। आज इसका विवाह संपन्न होने जा रहा है । और उस धवन अमृता बाल कन्या के पीछे से एक सोलह बरस की नववधू वनकुमार के सामने आ गई। उसका रूप देखकर वनकुमार चकित रह गया वह हुबहू वैसी ही लग रही थी, जैसे उसने नथवाली मछली को पहली बार स्त्री रूप में देखा था। वह अपनी बेटी को पहचान गया। नथवाली डिबिया के साथ आशीष देकर बेटी को विदाई दी। जिसने बेटी को पिता से मिलाया,उस स्वच्छ उज्जवल अमृता मैंकल सुता को भी पहचान कर माँ नर्मदा के बाल स्वरूप के साक्षात दर्शन कर धन्य हो गया। अब अपनी चैतन्यता को त्याग अपने आत्मा से परमात्मा में विलीन हो गया।
कहानीकार
विजय जोशी ‘शीतांशु’