नज़र की क्या कहें अब तो ज़िगर भी हो गए पत्थर।
कहाँ बू-ऐ-वफा खोई कि रिश्ते हो गए पत्थर।।
खुदा भी बेबसी में शब-सहर रोया यकीनन है।
दरख्तों पे खिले कुछ फूल भी जब हो गए पत्थर।।
बड़ी उम्मीद लेकर मैं चली आई सुनो प्यारे।
मगर थी क्या खबर जज्बात तेरे हो गए पत्थर।।
मुलम्मा वक़्त का चढ़ता गया क्यूँ इस कदर बोलो।
कि पत्थर को सिखा हँसना तुम्हीं अब हो गए पत्थर।।
भरा किसने ज़हर दिल में तुम्हारे हमसफर इतना।
इरादे साथ जीने के भला क्यूँ हो गए पत्थर।।
हवा झौंका नहीं लाया कभी क्या मेरी यादों का।
कहाँ है दफ्न रोज़न इश्क अरमां हो गए पत्थर।।
नदी का साथ देने की तड़प पाली समन्दर ने।
निभाना खेल जो समझा तो, खारे हो गए पत्थर।।
यकीं करना हुआ मुश्किल कसम टूटे सितारे की।
शज़र कूँचे वही तुम बिन सभी अब हो गए पत्थर।।
सदा ही नाज़ था तुझपे मुझे ऐ दोस्त मेरी जां।
किया क्यूँ वार दिल पे ही ‘अधर’ भी हो गए पत्थर ।।
#शुभा शुक्ला मिश्रा ‘अधर’