तुम नहीं हो साथ तो, उपहार लेकर क्या करुं।
रेशमी परितृप्तियों का हार लेकर क्या करुं।।
प्रेम का दीपक जलाए जल रहा हूँ रात-दिन।
बंधनों के रूप में अधिकार लेकर क्या
करुं।।
प्रेमरुपी लालिमा भरकर किसी की माँग में।
मैं अमर-सौभाग्य का आधार लेकर क्या करुं।।
शूल बनकर फूल भी चुभते हैं तनहा राह में।
बिन तुम्हारे प्यार की रफ्तार लेकर क्या करुं।।
प्रेम तो पूजा है ‘पंकज’, दिल खुला दरबार है।
बाँटना है गुल सभी को,ख़ार लेकर क्या करुं।।
#पंकज सिद्धार्थ
परिचय : पंकज सिद्धार्थ नौगढ़ सिद्धार्थनगर (उत्तर प्रदेश )से ताल्लुक रखते हैं,यानि गौतम बुद्ध की भूमि से।आपने गोरखपुर विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर हिन्दी से किया है और बीएड जारी है।आप कविता को जीवन की आलोचना शौक मानकर अच्छी रचना लिखते हैं।