रस नीरस

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chaganlal garg

अग्नि ,मधु विधा ,सामोपासना,प्राणोपासना के द्वारा अतिइन्द्रिय ग्राह्य को इन्द्रिय ग्राह्य बनाने की चेष्टा मानव के जीवन की सबसे बड़ी अभिलाषा रही है इसी कारण ब्रह्म की निराकारिता को खंडित किये बिना तादात्म्य स्थापित करने की गूढ आत्मीय चेतना का रहस्यमयी आभास रसानुभूति है! यह दशा मानवता की उच्चस्तरीय सीढ़ी है जहां प्रार्थना विलुप्त हो जाती है और दिव्य रस बरसने लगता है ! रस चेतना की परमदशा है, रस आकाशीय शास्त्र है, रस शून्य भावदशा का मंत्र है, रस मृत्यु के मंथन से निकला अमृत है, रस से ही अमृत के द्वार खुलते है!
“रसो वै स:! रस ॐ ह्येवायं लब्धवाआनंदी भवति! को ह्येवान्यात् कः प्राण्याद यदेष आकाश आनंदो न स्यात् ! एष ह्येवानन्दयाति ! (तैतिरीयोपनिषद् की ब्रह्मानंदवल्ली के छठे अनुवाक मे आनंदमय का वर्णन २\७) वह आनंदमय ही रसस्वरूप है, यह जीवात्मा इस रस स्वरूप परमात्मा को पाकर रसाक्त और आनंदयुक्त हो जाता है!
रस का आगमन आनंदमय है, दिव्य से समागम है, इसके आने के साथ ही अस्तित्व खो जाता है, शुद्ध अंतरतम से निकली रसानुभूति शारीरिक शेष्टाओ मे प्रखर होकर हँसी मे परिवर्तित हो जाती है, और अपने होने का अहसास मिट जाता है, अहंकार खो जाता है, हम नही रह पाते, सारा व्यक्तित्व अस्तित्व के गर्भ मे विलीन हो जाता है, और परम रसानुभूति का आवेग समूची चेतना का अंश बन जाता है, रस परमात्मा का परमानन्द है !
मनुष्य द्वारा किये जाने वाले हर शुभ कार्य रस प्रदाता है, जब भी किसी जरूरतमंद की सेवा सुश्रुषा का अवसर मिलता है और यथासंभव जब सामर्थ्य के अनुसार हमारे द्वारा तनिक भी शुभ कृत्य होता है, तत्क्षण ही रसानुभूति होने लगती है, आनंद की अदृश्य वर्षा से आत्मा भीगने लगती है! रस स्वयं के होने का बोध है और यह बोध सुख का उपाय है कि जो उपलब्ध है जो हमारे पास है हमारे भीतर है उसी मे आनंद लेने की कला का नाम रस है!
नीरसता जडता है, स्थूलता है, अहंकार है, निष्प्राण दशा का बोध है, रोने और चिल्लाने की निष्कृष्ट दशा का नाम नीरसता है! इन सभी अवस्थाओ मे व्यक्ति का अहंकार सघन हो जाता है, हम अपने आप की विशिष्टता के बोध से घनीभूत हो जाते है, एक तनाव एक ऐंठ हमे घेर लेती है, हम अहंकार के ऊँचे शिखर पर अनुपयोगी और नीरस जिंदगी के स्वामी बन जाते है!
साहित्य मनुष्य की भीतरी शक्तिओ और दशाओ का प्रकाशन है, इसी पृष्ठभूमि पर साहित्य के भवन मे साहित्यकारों का अंकुरण, प्रस्फुटन और पल्लवन होता है, यह सब रसानुभूति के शाश्वत सत्य से अनुप्राणित होने पर ही समाजोपयोगी व कल्याणकारी बनता है! अतः साहित्य के क्षेत्र मे रस की मीमांसा साहित्य के विविध अंग पढ़ने, सुनने या नाटक विधा मे रंगमंच पर देखने से जो आनंद की अनुभूति होती है, उसे रस कहते है! मानव मन मे रसानुभूति भाव या विकार से संभव होती है, अतः भावो के अनुरूप रस की प्राप्ति होगी !
मानव की अनुभूतियाँ अन्तर्निहीत प्रवृत्तियो व स्वभाव से प्रस्फुटित होकर विचारो को प्रभावित व संचालित करती है , चित की भीतरी दशा के अनकहे उदगार भाव कहे जाते है, यह हृदय जनित वह दशा हैं जो हमे रस से जोड़ती है व आनंद की अनुभूति कराती है, भाव ही रस प्रदाता है, और इसकी पूरी प्रक्रिया है , जब हम किसी भी प्रकार के स्वाद की अनुभूति लेते है तो स्वाद वस्तु की अपेक्षा मन के अनुभूति करने की दशा पर निर्भर करता है, हमारी चेतना का जो वस्तु के साथ तादात्म्य हैं और उस तादात्म्य से भी ज्यादा रसानुभूति की दशा व स्वाद प्रदान कराने में सक्षम है, सही अर्थो में स्थूल या सूक्ष्म के प्रति रागात्मकता और हमारी चेतना की संवेदनशीलता का अहसास का भावनात्मक पक्ष रस है !
भावों की पृष्ठभूमि पर ही हमारी मानव प्रदत प्रवृत्तियों के तले रस का संचार निर्भर करता है साहित्य मे रसोत्पादक भाव दो भागों में विभाजित गये है, यथा १- स्थायी भाव २ – संचारी भाव । स्थायी भाव मानव मन की उस दशा को स्पर्श करते है जहां मन की अनुभूति को किसी भी दशा मे दबाया न जा सके , दमित नही किया जा सके , इस प्रकार के भाव चिर काल तक रहकर हृदय को रसानुभूति देते रहते है ।
हमारे काव्य शास्त्रीयों के अनुसार स्थायी भाव नौ प्रकार के माने हैं ~
१- रति भाव – उत्पन्न रस , श्रृंगार रस , (संयोग, वियोग )
उद्धरण –
देखि रूप लोचन ललचाने , हरखे जनु निज निधि पहचाने ।
(रामचरितमानस)
२-शौक भाव -उत्पन्न रस, करूण रस , ( अनर्थ, नाश की व्याकुल दशा )
३-हास भाव -उत्पन्न रस , हास्य रस ( आंगिक , वैचारिक, वेशभूषा जनित , विश्रृंखलता से युक्त गतिविधि )
४-क्रोध भाव – रोद्र रस , ( काम , बिगाड़ने पर उत्तेजित वृति)
५- उत्साह भाव – वीर रस ( वीरता ,दान , दया की वृत्ति )
६- भय भाव – भयानक रस ( सामर्थ्य अभाव में संघर्ष से भय वृत्ति )
७- जुगुप्सा भाव – वीभत्स रस ( गंदी वस्तु विचार के प्रति घृणा वृत्ति )
८- विस्मय भाव – अदभुत रस , ( विचित्र, अलौकिक दृश्य से आश्चर्य की वृत्ति )
९- निर्वेद भाव – शान्त रस ( संसार के प्रति वैराग्य वृत्ति )
उपरोक्त भावों को परिपुष्ट और सहयोग करने निमित्त मन के भीतर संचारी भाव पानी के बुलबुलों की भाँति शीघ्र उत्पन्न भी होते है और विनष्ट भी हो जाते है उनकी विद्वानों ने संख्या ३३ मानी है , यथा -निर्वेद, आवेग,दीनता , श्रम ,मद ,जडता, उग्रता , मोह, विबोध , स्वप्न, ग्लानि, शंका, आलस्य, चिंता, आशा, स्मृति, चपलता, हर्ष, गर्व ,विशाद, उत्सुकता,निन्द्रा , इर्ष्या, मति,व्याधि , अवहित्था , उन्माद, मरण ,त्रास , वितर्क अपमान, मान ,व्यथा आदि।
जिस कारण या दशा से स्थायी भाव प्रस्फुटित होकर प्रभावित करते है उस स्थिति को विभाव माना गया है, इसके तीन सोपान है , आलंबन, उद्दीपन और आश्रय ।
भावों के संबंध में परिचय देने वाली मानव कृत चेष्टा या स्वक्रियाओं को अनुभाव कहते है जो चार तरह से परिलक्षित होते है, १- कायिक अनुभाव यथा – आँख, भौह , हाथ आदि शारीरिक अंगो की चेष्टाऐ।
२-मस्तिष्क संबंधी चेष्टाऐ -चक्कर आना, संज्ञा हीन होना, अचेतन होना आदि।
३- आहार्य – वेशभूषा द्वारा भाव प्रदर्शन ।
४- शात्विक चेष्टाऐ – शारीरिक अंग विकार यथा – स्वेद , स्तंभन , रोमांस, स्वर भंग ,कंपन ,अश्रुपात आदि ।
उपरोक्त विवेचन के परिप्रेक्ष्य मे स्पष्ट है कि भाव से ही रस का स्पंदन है, और रस जीवंतता का परिचायक है और मानव चेतना व विकास का संचालन कर्ता है, भाव मानव मन के रस की दशा हैं और यह दशा यह प्रतिपादित करती है कि किसी भी वस्तु मे रस नही होता , वस्तु सिर्फ रस के निमित्त बनती है, वैज्ञानिक भी इस तथ्य के हिमायती है कि वस्तु मे कोई रंग नही होता , वस्तु केवल निमित्त होती है, किसी भी रंग को हमारे भीतर निर्माण करने के लिए । ठीक यही दशा वस्तु और रस निर्माण की है ,और इस अनुभूति की भीतरी दशा को ही रस कहे तो शायद अतिशयोक्ति नही होगी ….!
नीरसता जीवन का स्थूल पक्ष है, जिसमे जीवन की बाह्य दुनिया मे व्याप्त वैभव की दौड है, इसके पीछे का मंतव्य भी रस है परंतु यह रसानुभूति की भ्रमित खोज है जिसमे अंततः नीरसता के तापमान से भीतर के रस की प्रक्रिया सुखकर नीरसता को प्राप्त करती है …!!

#छगन लाल गर्ग विज्ञ
 
परिचय-
छगन लाल गर्ग “विज्ञ”! 
जन्मतिथि :13 अप्रैल  1954 
जन्म स्थान :गांव -जीरावल तहसील – रेवदर जिला – सिरोही  (राजस्थान ) 
पिता : श्री विष्णु राम जी 
शिक्षा  : स्नातकोतर  (हिन्दी साहित्य ) 
राजकीय सेवा :  नियुक्ति तिथि 21/9/1978 (प्रधानाचार्य, माध्यमिक शिक्षा विभाग, राजस्थान ) 
30 अप्रैल  2014 को राजकीय सेवा से निवृत्त । 
प्रकाशित पुस्तके :  “क्षण बोध ” काव्य संग्रह गाथा पब्लिकेशन,  लखनऊ  ( उ,प्र) 
“मदांध मन” काव्य संग्रह,  उत्कर्ष प्रकाशन,  मेरठ (उ,प्र) 
“रंजन रस” काव्य संग्रह,  उत्कर्ष प्रकाशन,  मेरठ (उ,प्र) 
“अंतिम पृष्ठ” काव्य संग्रह,  अंजुमन प्रकाशन,  इलाहाबाद  (उ,प्र) 
“तथाता” छंद काव्य संग्रह, उत्कर्ष प्रकाशन, मेरठ (उ.प्र.) 
“विज्ञ विनोद ” कुंडलियाँ संग्रह , उत्कर्ष प्रकाशन मेरठ (उ.प्र. ) । 
“विज्ञ छंद साधना” काव्य संग्रह, उत्कर्ष प्रकाशन!
साझा काव्य संग्रह – लगभग २५
सम्मान : विद्या वाचस्पति डाक्टरेट मानद उपाधि, साहित्य संगम संस्थान नईं दिल्ली द्वारा! विभिन्न साहित्यिक मंचो से लगभग सौ से डेढ सो के आस-पास! 
वर्तमान मे: बाल स्वास्थ्य  एवं निर्धन दलित बालिका शिक्षा मे सक्रिय सेवा कार्य ।अनेकानेक साहित्य पत्र पत्रिकाओ व समाचार पत्रों में कविता व आलेख प्रकाशित।
वर्तमान पता : सिरोही (राजस्थान )

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