जब समर को थी ज़रूरत
कुछ साँसों की
तब एक साँस बनकर तुम उभरी
कितनों की बातें
कितनों के लक्ष्य
सधे तुम पर
पर तुम उभरी
तुमने जीना चाहा
उनसे दूर
जो घोंठते थे
गला तुम्हारा
मृत्यु की शय्या
पर लेटे भीष्म की भाँति
जब बेबस थी, लाचार थी तुम
तब तुमने लिया, संज्ञान तुम्हारा
जब जीत रहा है
दैत्य वर्ग
इस समर को एक तरफ़ा
तब सन्नाटे की
एक आवाज़ बनी तुम
ड़र के मारे
रूँध गये थे
गले जो सारे
उनमें स्वर का
एक एहसास बनी तुम
करो भरोसा
हो नहीं अकेली
पीछे तुम्हारी सिसकियों के
हज़ारों शोर खड़े हैं
ड़र कर छिपे हुए थे
जो योद्धा
आँसू तुम्हारे उनके ख़ातिर
नये अस्त्र बने हैं
तुम जीतोगी
क्योंकि तुमने
लड़ना शुरू किया था
समर टूट रहा था जब
तब लक्ष्य सिद्ध किया था
परिचय:नाम – बेनी प्रसाद राठोरस्थान- बाराँ (राजस्थान)शिक्षा- B.Sc. (गणित)कार्यक्षेत्र- विध्यार्थी