“मृत्यु जीवन का शाश्वत सत्य है ।, जीवन मिट्टी से मिट्टी तक की यात्रा है।, अर्थी से पहले जीवन का अर्थ जान ले।“ ये बोध वाक्य हर बार उस समय याद आते है जब हम किसी को श्मशान में छोड़ने जाते है और शोकसभा के कक्ष की दीवारों पर अपनी दृष्टि डालते है, जहॉ पर कुछ अटल सत्य बातें हमारे हृदय को परिवर्तित करने के उद्देश्य से लिखी रहती है । हम श्मशान में जाते है, कईं लोगों को राख होते देखते है। लेकिन हम अपना मनोबल हमेशा मजबूत रखते है कि हम तो दृष्टा है कर्ता नहीं। करता को वो ऊपर वाला है। हम सब उसके हाथों की कटपुतली है।
कुल मिला कर बात यह है कि हमें न तो इन अटल सत्य वाक्यों से कोई पिघला सकता है और न ही हमारे संसार के प्रति स्थापित मनोबल को कोई गिरा सकता है । हम जब श्मशान में अपनी और से पंच लकड़ी दे कर घर की तरफ प्रस्थान करते है तो सारे उपदेश और सत्य चर्चा वहीं छोड़ कर स्कूटर से घर की तरफ भाग लेते है, वह भी इतनी स्पीड में कि कोई हमको पकड़ कर दीवारों पर लिखा सारा ज्ञान हमारे हृदय में उढ़ेलने न लग जाए।
वैसे हम कोई मूर्ख थोड़े ही है जो एक दो लाईन पढ़कर और कुछ देर श्मशान में बैठ कर वैरागी हो जाए। श्मशानिया वैराग्य हमें भी होता है पर जैसे ही याद आता है, हमारा भी घर है, परिवार है, प्यार करने वाली एक बीबी है, बच्चें है । उनका बेचारों का क्या होगा? हमारी अंतर आत्मा बोल उठती है- सत्य चर्चा के लायक होता है, सत्य पर चलने वीरों का काम है। घर गृहस्थी को तो सब करना पड़ता है ।
श्मशान में जाओ तो ऐसे निर्लिप्त होकर जाओ, जैसे कोई पिक्चर देखने जाते है । तरह- तरह के सीन देखते है और जब विलेन हीरो को मार रहा होता है तो पॉपकार्न और शीतल पेय हमारे हाथों में ही स्थिर हो जाता है, नजरें एकटक बड़े परदे पर स्थिर हो जाती है और अंदर से हम ऐसे कसमसाते है कि हम होते तो विलेन को हाथों हाथ निपटा देते, लेकिन कर नहीं सकते क्योकि हम दृष्टा है, कर्ता नहीं । थोड़ी देर बाद हीरो पॉवर में आता है और विलेन को निपटाने लगता है, हमारे पॉप कार्न खाने की स्पीड़ भी बड़ जाती है। जितना विलेन ने हीरो को मारा उससे ज्यादा हीरो उसको मारता है , मार मार के अधमरा कर देता है, पुलिस एक दम टाईम पे आ जाती है और विलेन को गिरफ्तार कर ले जाती है । पिक्चर खत्म होते ही हम सम्मोहन से बाहर आ जाते है और जल्दी से बाहर निकल स्कूटर से घर की ओर दौड़ पड़ते है। कल सबेरे उठ कर दूसरे काम निपटाने है । हीरो विलेन का तो काम ही यही है, अपन कोई पिक्चर का हिस्सा थोड़ी है जो फिल्मी स्टाईट में जिए।
फिल्म देखो फिल्म का ज्ञान मत लो, श्मशान में जाओ कोई निपट रहा है तो कुछ देर मन को दृवित करो, सब कुछ होने के बाद संसार धर्म को निभाने के लिए निकल पड़ो वरना जी नहीं पाओगे ,यही सच्चा ज्ञान है जो कि संसार की असारता बोध करवाने में बचपन से बुढ़ापे तक इंसान को साथ देता है,एक ही विचार पर स्थिर रखता है ।
उपदेशक वाक्य और चर्चाएँ विचारों के छोटे गमलों में ही पनपने चाहिए, इनके लिए यदी लंबे चोड़े हृदय की जमीन दे दी घर परिवार के लिए मुश्किले खड़ी होना तय है । आज फिल्म देखकर, कल श्मशान से आकर, परसो किसी प्रवचन से लौट कर हम परिवर्तित होने लगे तो न घर के रहेंगे न घाट के ।
#संदीप सृजन
उज्जैन (मध्यप्रदेश)