मातृभाषा के माध्यम से ही मनुष्य का ज्ञान- विज्ञान की दुनिया में पदार्पण होता है माँ के स्तनपान के साथ साथ अबोध शिशु जिन ध्वनियों और दुनियावी वस्तुओं से परिचना शुरू करता है वह बच्चे को प्रतीकों की नई दुनिया में प्रवेश दिलाता है यह प्रक्रिया बड़ी सरल औरप्रभावी होती है क्योंकि बच्चे के आसपास गुंजरित होते परिवेश में देखते सुनते इस भाषा में निरंतर अभ्यास चलता रहता है से में भाषा की दुनिया का एक सुदृढ़ आधार तैयार होता है जो सहज और स्वाभाविक होने के कारण सरल और सुग्राह्य होता है ।धीरे- धीरे बच्चा ध्वनि ,शब्द और अर्थ के प्रयोग में दक्षता प्राप्त करने लगता है इस तरह भाषा बच्चे के लिए एक नया उपकरण बन जाती है जो उसके लिए एक समानांतर दुनिया ही खड़ा कर देती है । चूँकि मातृभाषा का उपकरण अनायास मिल जाता है उसकी क्षमता किसी अन्य भाषा सेनिर्विवाद रूप से अधिक होती है । फलतः मातृभाषा का उपयोग करते हुए बच्चे की बौद्धिक प्रगति किसी दूसरी आरोपित भाषा की अपेक्षा अधिक तीव्र होती है । साथ ही मातृभाषा के साथ बच्चा अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक दुनिया भी बनाता और बसाता है । एक बारमातृभाषा पर पकड़ आ जाने पर भाषा का स्वभाव समझ में आ जाता है और तब अन्य भाषाओं को भी अर्जित करना सरल हो जाता है ।
भारत की भाषाई स्थिति अद्भुत है । यहाँ ऐतिहासिक कारणों विशेषता: औपनिवेशिक परिस्थितियों से उपजे मानसिक अवरोधों के कारण भाषा का नियोजन अंग्रेज़ी और अंग्रेजियत से इस क़दर आच्छादित हो गया कि स्वतंत्रता मिलने के सत्तर साल बीतने पर भी हमकिंकर्तव्यविमूढ बने बैठे हैं और कोई कारगर भाषाई नीति विकसित नहीं हो सकी हैं।विकास की सारी कहानी चल रही है परंतु शिक्षा और भाषा जैसे सवाल पृष्ठभूमि में चले गए हैं जब कि दीर्घ काल तक इनकी उपेक्षा बड़ी घातक होगी ।
आज की हक़ीक़त यह है कि अंग्रेज़ी की भाषाई सेंधमारी ( या डकैती !) से सभी ढेर होते दिख रहे हैं । सरकार तो सरकार ही ठहरी उसे इस तरह के आधारभूत प्रश्नों से उलझने और निपटने की न फ़ुर्सत है न साहस ।
आज काफ़ी बड़ी संख्या में हम भारतीयों ने आधुनिक सभ्यता और ज्ञान के लिए अंग्रेज़ी को अनिवार्य मान लिया है । आम आदमी यह मान बैठा दिखता है कि अंग्रेज़ी में महारत हासिल होते ही सफ़कता चरण चूमेगी । इस ऊहापोह में बंगाल हो या उत्तर प्रदेश अंग्रेज़ी माध्यमके विद्यालयों की पौ बारह है । वे मनमानी फ़ीस भी लेते हैं और भारत में अंग्रेज़ी के मानस – द्वीप का निर्माण भी करते हैं । बच्चा कहता है “मम्मी मेरे लेफ़्ट लेग की फ़िंगर में चोट लगी है “ और इस भाषाई उपलब्धि से माताश्री भी धन्य हो गौरवान्वित अनुभव करती हैं । विद्यालयमें अंग्रेज़ी प्रयोग ज़रूरी और हिंदी प्रयोग दंडनीय घोषित कर दिया जाता है । इसका परिणाम भाषा-प्रदूषण के रूप में भी दिख रहा है जिसके चलते भाषा में अंग्रेज़ी घुसपैठ ‘हिंगलिश’ को जन्म दे रही है और हिंदी के स्वभाव और सौष्ठव को नष्ट कर रही है ।
अस्वाभाविक होने पर भी अंग्रेज़ी का हौवा कुछ विलक्षण रूप से सबके दिमाग़ पर छाया हुआ है ।भारत की भाषायें अंग्रेज़ी के आगे लाचार और जनहित दिखती हैं । बहुतों को हिंदी या अन्य भारतीय भाषा के प्रयोग में दीनताऔर हीनता अनुभव होती है ।आख़िर अंग्रेज़ी अंग्रेज़ीजो ठहरी ! उसने हम पर राज किया इसलिए राजा की तरह बनना है तो अंग्रेज़ी से हो कर ही उसका रास्ता आगे जाता है ।यह असर मन में इतना गहरा पैठ चुका है कि मुद्रित और दृश्य हिंदी संचार माध्यम या मीडिया में भी अंग्रेज़ी की छौंक और बघार लगाए बिना मन नहींमानता ।अंग्रेज़ी में ही ‘मास्टर स्ट्रोक’ जैसा तगड़ा जुमला शेष है । भाषाओं के प्रति उपेक्षा वाला ग़ैर संजीदा भाव पूरी संस्कृति पर असर डाल रहा है । शब्द सिर्फ़ ध्वनि नहीं होते उनके भीतर अनुभव , दृश्य और अर्थ की एक बड़ी दुनिया समाई रहती है । उन्हें खोकर या छोड़ कर हम विपन्न होते जाते हैं ।
हमारी भाषा केवल विचारों को व्यक्त ही नहीं करती वह विचारों को गढ़ती है और हमारे मानस को आकार भी देती है ।भाषा स्वयं में एक कर्म है और अगणित कर्मों की जननी भी है । इसलिए उसके साथ तटस्थता का रुख़ आत्मघाती है । आज हिंदी से हिंदी के शब्द लुप्त हो रहे हैं और अंग्रेज़ी के शब्द यदि अंदर आ रहे हैं तो यह भाषा के गठन तक सीमित प्रश्न नहीं है ।इसके साथ संस्कृति के निर्माण का प्रश्न भी जुड़ा है , समाज की अस्मिता भी जुड़ी है और सामाजिक अभिव्यक्ति और सहकार भी जुड़ा है ।मातृभाषा का कोई विकल्प नहीं है ।परिवार और विद्यालय दोनों ही परिवेश जिसमें बच्चा पलता बढ़ता है बड़े ही संवेदनशील होते हैं ।
#गिरीश्वर मिश्र