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जीवन मे हर पल छला-छला सा लगता है।
आईने में अपना चेहरा धुन्दला सा लगता है।।
बारिश से बचने के लिए सहारा लिया था छत का।
ध्यान दिया तो वो भी खुला खुला सा दिखता है।।
अत्यधिक उम्मीदों को बनते बिगड़ते देखा है।
कुछ छलावों से खुद को दिन में छलते देखा है।।
एक अजीब नशा सा है मुझे खुद ही चोट खाने का।
मैंने सपने बनाकर खुद ही खुद को छलते देखा है।।
कोई क्या खेलेगा किसी के अरमानो से आजकल।
मैंने उस आसमाँ को जमीं को छलते देखा है।।
नीरज त्यागी#ग़ाज़ियाबाद ( उत्तर प्रदेश ).
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