18 से 20 अगस्त 2018 को मॉरीशस में गोस्वामी तुलसीदास नगर के अभिमन्यु अनत सभागार में आयोजित ’11वें विश्व हिंदी सम्मेलन’ को ले कर हर किसी की अपनी राय है। हर कोई अपने तरीके से अपने अनुभवों को बांट रहा है। जो गए वे भी, और जो नहीं गए वे भी। अपनी जगह सभी सही हैं। यह कहानी तो सभी विद्वान जानते हैं कि पांच अंधों से जब हाथी के बारे में पूछा तो जिसने जहाँ से हाथी को छूआ वैसा ही बताया। मुझसे भी अनेक मित्रों ने ’11वें विश्व हिंदी सम्मेलन’ के बारे में जानना चाहा है। मेरी स्थिति भी कुछ वैसी ही है। इसलिए सम्मेलन और उसके परिवेश को जहाँ-जहाँ जैसा छूआ और जो अनुभव किया वह सभी के सामने रख रहा हूँ।
विश्व हिंदी सम्मेलन को लेकर अक्सर लोगों को अनेक शिकायतें रही हैं । यह भी कि इन सम्मेलनों में जो विचार विमर्श होता है, जो सिफारिशें होती हैं वे किसी परिणाम तक नहीं पहुंच पाती। या फिर यह है कि इन सम्मेलनों में अक्सर जुगाड़बाज सरकारी खर्चे पर पहुंच जाते हैं और असली हिंदी-सेवी दरकिनार हो जाते हैं। सरकारी कार्यालयों, संस्थानों या संस्थाओं के खर्च पर जाने वाले अनेक लोग तो पिकनिक मनाने ही जाते हैं। यह भी कि इसमें सरकारी धन का अनावश्यक रुप से अपव्यय होता है, वगैरह। इन तमाम बातों को मैं खारिज तो नहीं कर रहा। हमेशा की तरह इस बार भी सरकारी संस्थानों आदि के खर्च पर ऐसे अनेक लोग सम्मेलन में उपस्थित थे जिनका हिंदी से कोई संबंध नहीं था। अगर नौकरी के नाते कोई संबंध था भी तो उन्हें हिंदी से कोई विशेष सरोकार न था। भारतीय भाषाओं के प्रसार के लिए सतत् प्रयासरत वरिष्ठ पत्रकार राहुलदेव, भारतीय भाषाओं की प्रौद्योगिकी के लिए निरंतर प्रयासरक डॉ. ओम विकास और हिंदी व भारतीय भाषाओं के लिए निरंतर संघर्ष कर रहे ऐसे लोगों के अनेक नाम हैं जो सम्मेलन में होते तो सम्मेलन की गरिमा बढ़ती और वे सम्मेलन के उद्देश्यों की सफलता में योगदान भी देते।
लेकिन ऐसा तो हमेशा हर जगह और हर तरह के आयोजनों में सदैव होता आया है। लेकिन इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि उनसे कहीं बड़ी संख्या में देश से ही नहीं विदेशों से भी ऐसे लोग वहाँ पहुंचे थे जिनका हिंदी और भारतीय भाषाओं सहित भारत और भारतीयता से गहरा सरोकार है। ऐसे अनेक लोग धनी न होने के बावजूद निजी खर्च पर भी इस सम्मेलन में पहुंचे। उनमें में मैं भी एक था। मॉरीशस में आयोजित 11वें विश्व हिंदी सम्मेलन में मैं ऐसा बहुत कुछ भी देखता हूँ जो सकारात्मक है और हिंदी और भारतीय भाषाओं सहित भारत, भारतीयता और भारत की संस्कृति के विकास के मार्ग को प्रशस्त करता दिखता है।
सम्मेलन के ठीक पहले भारत रत्न भारत के पूर्व प्रधानमंत्री, हिंदी के कवि हिंदी-प्रेमी व प्रखर वक्ता माननीय अटल बिहारी वाजपेयी जी के निधन का प्रभाव विश्व हिंदी सम्मेलन पर भी पड़ा। सांस्कृतिक कार्यक्रम के लिए वहाँ पहुंचे कलाकार अपनी कला का प्रदर्शन नहीं कर पाए। भोपाल सम्मेलन की तरह यहाँ भारतीय संस्कृति की भव्य झलक देखने को नहीं मिली। लेकिन इसके साथ-साथ यह भी कि मा. अटल बिहारी वाजपेयी जी, जिन्होंने सबसे पहले संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी का झंडा गाड़ा उनके निधन से लोगों के दिलों दिमाग में देश-दुनिया में हिंदी के प्रति एक सघन भावनात्मक परिवेश बन गया, जो सम्मेलन में भी दिखा। माननीय अटल बिहारी वाजपेयी जी के प्रति जगी संवेदना लोगों के हिंदी-प्रेम को अंतर्मन तक ले गई और सांस्कृतिक कार्यक्रम का समय अटल बिहारी वाजपेयी जी की श्रद्धांजलि का सत्र बन गया।
सम्मेलन में धूम-धड़ाका तो न था लेकिन उत्साह में कोई कमी न दिखी। मॉरीशस में तो मानो भारतीयता की लहर बह रही थी। हिंदी ही नहीं भारतीय धर्म और संस्कृति कहीं न कहीं हर मॉरीशसवासी के मन को स्पर्श करती दिखी। मुझे तो यह लगता है कि हिंदी के बहाने भारतीयता का रंग मॉरीशसवासियों के सिर चढ़कर बोल रहा था। और हो भी क्यों न, जब पूरे देश में विश्व हिंदी सम्मेलन के भव्य बैनर लगे होे, हर तरफ मारीशस और भारत के झंडे लगे हों, बड़ी संख्या में भारत व अन्य देशों से आए भारतवासी पूरे देश में दिखें और बड़ी संख्या में मॉरीशसवासी आयोजन से जुड़े हों तो वातावरण तो निर्मित होगा ही।। मॉरीशस के बहुसंख्यक भारतवंशी इन भारतीयों के समूह में अपनी जड़ों को तलाशते दिखे। इन सबके साथ साथ भारत के धर्म और संस्कृति की धूम पूरे वातावरण को भारतमयी कर रही थी। उद्टघान सत्र में मॉरीशस के प्रधानमंत्री मा. प्रवीण जगन्नाथ और समापन में कार्यवाहक महामहिम राष्ट्रपति श्री परमशिवम पिल्लैजी के संबोधन प्रभावी व आत्मीयतापूर्ण थे। इसके अतिरिक्त पूर्व प्रधानमंत्री मा. अनिरुद्ध जगन्नाथ और लीला देवी दुकन लछूमन, ड्रिक्स मंत्री सहित कई वरिष्ठ मंत्री सक्रियता से लगे थे ।
भारत की पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई के निधन पर राजकीय शोक के चलते जब मॉरीशस भर में भारत के झंडे झुके तो उनके साथ साथ मॉरीशस के झुके झंडे हर भारतवासी के दिल को झंकृत कर रहे थे। सबसे बड़ी बात तो यह है कि विश्व हिंदी सम्मेलन का नेतृत्व भारत की विदेश मंत्री माननीय सुषमा स्वराज जी कर रही थीं। इनका हिंदी प्रेम तो जगजाहिर है ही, वे हिंदी की प्रखर वक्ता भी हैं। जब भी कोई अवसर आता है वे हिंदी सहित तमाम भारतीय भाषाओं के साथ खड़ी दिखती हैं। एक समय उऩ्होंने भारत भाषा प्रहरी डॉ. वेद प्रताप वैदिक जी के साथ हिंदी के आन्दोलनों में उनका साथ भी दिया है। उन्होंने सम्मेलन में इस बात को रेखांकित किया कि भोपाल के विश्व हिंदी सम्मेलन से पहले तक के विश्व हिंदी सम्मेलन मुख्यतः ललित साहित्य के सम्मेलन ही बने रहे लेकिन भोपाल और उसके बाद मॉरीशस के विश्व हिंदी सम्मेलन मैं साहित्य से इतर भाषा के विभिन्न पक्षों को भी पर्याप्त महत्व दिया गया है। विचार गोष्ठियों में पूरी गंभीरता के साथ मंथन भी हुआ। अपने उद्घाटन भाषण में स्वयं सुषमा स्वराज जी ने बताया कि भोपाल सम्मेलन की सिफारिशों और लिए गए निर्णयों पर निरंतर बैठकें की गई जिसमें वे स्वयं भाग लेती रहीं। कवि व भाषा-पप्रौद्योगिकिविद् अशोक चक्रधर, साहित्यकार हरीश नवल, पत्रकार लेखक प्रो. राम मोहन पाठक, राजभाषा विभाग के संयुक्त सचिव विपिन बिहारी, विश्व हिंदी सचिवालय के महासचिव विनोद मिश्र, पत्रकारिता विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति ब्रज किशोर कुठियाला सहित अनेक विद्वान सम्मेलन को सफल बनाने में जुटे थे।
भारत में अक्सर यह देखा गया है कि जहां छोटे-मोटे नेता भी उपस्थित होते हैं तो अक्सर वही बोलते हैं। बाकी सब तो केवल सुनने के लिए ही होते हैं। लेकिन एक बात जिसने मुझे सर्वाधिक प्रभावित किया वह यह थी कि “भाषा प्रौद्योगिकी के माध्यम से हिंदी सहित भारतीय भाषाओं का विकास” विषय पर आयोजित समानान्तर सत्र. जिसकी अध्यक्षता भारत सरकार के गृह राज्य मंत्री माननीय श्री किरेन रिजिजू जी कर रहे थे। उसमें मुझ जैसे प्रतिभागियों को भी खुलकर अपनी बात रखने का मौका दिया गया। उल्लेखनीय बात यह कि उस समय सभागार में उपस्थित भारत सरकार की विदेश मंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज और विदेश राज्यमंत्री जनरल वी.के. सिंह मंच के बजाए पिछली पंक्ति में श्रोताओं के बीच बैठकर गंभीरता से हमारे सुझावों को सुन रहे थे। निश्चय ही यह सम्मेलन के उद्देश्यों के प्रति उनकी गंभीरता को दर्शाता है।
सम्मेलन में भारत की ओर से विदेश मंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज और विदेश मंत्रालय में राज्य मंत्री जनरल वीके सिंह और श्री एम जे अकबर के अतिरिक्त गृह राज्य मंत्री श्री किरेन रिजिजू उपस्थित थे, जिनके पास राजभाषा विभाग का दायित्व भी है। इसके अतिरिक्त हिंदी की साहित्यकार व गोवा की राज्यपाल माननीय श्रीमती मृदुला सिन्हा तथा हिंदी के कवि व बंगाल के माननीय राज्यपाल भी सम्मेलन की गरिमा बढ़ाने के साथ-साथ सक्रिय भूमिका भी निभा रहे थे। मॉरीशस सम्मेलन में भी हिंदी और भारतीय भाषाओं के विभिन्न पक्षों पर गहन चिंतन मनन हुआ। चर्चा सत्र और उसके बाद सिफारिशों को लेकर की गई मंत्रणा यह संकेत दे रही थी कि यह सम्मेलन केवल सैर-सपाटे का नहीं बल्कि हिंदी के लिए कुछ करने का गंभीर प्रयास है। प्रयास के इन तिलों से कब और कितना तेल निकलेगा, यह तो वक्त ही बताएगा।
अच्सछे सुझाव आए और अनुशंसाएँँ भी सार्थक थीं। इनमें से कुछ अनुशंसाएँ व सुझाव मन को बहुत भाए, जिनमें कुछ तो मेरे भी थे। जैसे – 1. भारत को इंडिया नहीं भारत ही कहा जाए। 2. हिंदी को भारत की राष्ट्रभाषा बनाया जाए। 3. उद्योग व्यापार, रिटेल, बीमा, बैंकिंग, राजस्व आदि सहित सभी कंपनियों आदि के कार्य संबंधी आई.टी. समाधान, ई-गवर्नेंस, ऑन लाइन सेवाएँ तथा वैबसाइट आदि एक साथ द्विभाषी अथवा स्थानीय भाषा सहित त्रिभाषी हों। 4. नई पीढ़ी को सांस्कृतिक दृष्टि से जागरूक बनाया जाए। 5. भारतीय भाषाओं के पत्र-पत्रिकाओं व चैनलों के लिए प्रेस कौंसिल की तरह के भाषा संबंधी नियामक अथवा मार्गदर्शी निकाय बनाए जाएँ जो इन्हें अपनी भाषाओं के जीते – जागते शब्दों की हत्या करना व लिपि को लुप्त करने से रोकें।
एक घटना ने मुझे बहुत अधिक प्रभावित किया। सम्मेलन के दूसरे दिन पूर्व निर्धारित योजना यह थी कि सम्मेलन से होटल के लिए जाने वाली बस कवि-सम्मेलन के बाद जाएगी। लेकिन कुछ विलंब के कारण काफी लोगों ने जल्द जाने का निर्णय लिया और बस चली गई। जब मैंने मॉरिशस सरकार के एक अधिकारी, जिन्हें हमारी बस के प्रतिनिधियों को लाने ले जाने का जिम्मा सौंपा गया था, फोन किया तो उन्होंने बताया कि बस के कुछ यात्री अपने आप चले गए थे और बाकी ने जल्द जाने का अनुरोध किया तो वे उन्हें होटल ले गए हैं। उनके पूछने पर मैंने बताया कि मैं तो अभी भी सम्मेलन स्थल पर ही हूँ । तब उन्होंने कहा, ‘चिंता मत कीजिए मैं आपको लेने आ रहा हूूँ और आपके होटल तक पहुँचाऊँगा।’ कुछ ही देर बाद वे अपनी निजी गाड़ी से मुझे लेने के लिए वहाँ पहुंच गए और मुझे लेकर वापस बहुत दूर स्थित होटल छोड़ने गए। उऩकी कर्तव्यपरायणता व विनम्रता देखकर मैं अभिभूत था। वहाँ के भारतवंशी भारत के लोगों के स्वागत में जिस प्रकार पलक – पाँवड़े बिछाए थे, वह दिल को छूता था।
सम्मेलन के अंतिम दिन भोजन के पंडाल में दूर एक कोने पर नाच-गाने की आवाज़ आ रही थी। ढोलक के साथ महिलाओं का नृत्य और संगीत चल रहा था। मैंने वहां जाकर देखा तो पाया कि भोजन की बड़ी सी मेज के चारों ओर ही भारतीय परिधान में कुछ महिलाएं बिल्कुल ठेठ भोजपुरी शैली में ढोलक की ताल पर भोजपुरी गीत गा रही थी, और कुछ महिलाएं नृत्य कर रही थीं। बाद में पता लगा कि वे सब मॉरीशस की प्रतिभागी महिलाएँ थीं। डेढ़ – दो सौ वर्ष बाद भी अपनी संस्कृति के प्रति प्रेम को देखकर मन भर आया।
सम्मेलन के दूसरे दिन भोजनोपरांत सम्मेलन की ओर से स्थानीय भ्रमण का कार्यक्रम रखा गया था। जिसमें वे सबसे पहले हमें पोर्ट लुइस ले गए । यह वही बंदरगाह है जहां भारत के लोग कुली बन कर पहुंचे थे। जिसे कुली घाट कहा जाता था। अब जिसका नाम बदलकर प्रवासी घाट कर दिया गया है। वहाँ लगी प्रदर्शनी में उस समय भारत से यहां पहुंचे भारतवंशियों की जिंदगी, उनकी तकलीफें और उनके संघर्ष को दिखाया गया था। वहाँ का एक बहुत बड़ा शैड था जिसमेंँ वहां पहुंचने वाले भारतीय कुलियों को पंजीकरण की कार्रवाई पूरी होने तक ठूंस दिया जाता था, इन हालात में अनेक लोग बीमारियों का शिकार हो जाते थे और मर जाते थे। सदियों पहले बिछड़े अपने उन भाइयों – बहनों उनकी तकलीफों के बारे में सोच कर सभी भारतीयों के दिल में कहीं ना कहीं एक टीस उठती थी।अपनत्व की यह टीस भारतवासियों और भारतवंशियों को परस्पर जोड़ती दिखी। इस दौरान दिखाए महात्मा गांधी संस्थान के विद्यालय और प्रदर्शनी भारतवंशियों के अतीत और वर्तमान को जोड़ रही थी । अंत में सभी प्रतिभागी विश्व हिंदी सचिवालय पहुंचे जिसके भव्य भवन का पिछले वर्ष भारत के महामहिम राष्ट्रपति ने उद्घाटन किया था।
एक समय था जब भारत में प्राय सभी हिंदुओं के घरों में आंगन में तुलसी का पौधा छोटा सा मंदिर और केसरिया ध्वजा मिलती थी। लेकिन अब ऐसा कम ही देखने को मिलता है। लेकिन हम यह देखकर हैरान थे कि मॉरीशस में सभी हिंदुओं के घर में आज भी यह सब कुछ था तुलसी का पौधा, आंगन में हनुमान जी का छोटा सा मंदिर और धर्म ध्वजा। मॉरीशस के प्रसिद्ध साहित्यकार रामदेव धुरंधर जी हमें अपनी बेटी के घर ले गए। हम यह देखकर हैरान थे कि वहाँ उनके नन्हे नाती वहांँ विधिवत चरण स्पर्श कर अपनी भारतीय संस्कृति का परिचय दे रहे थे। आधुनिकता के चलते जहां हम भारतवासी अपनी संस्कृति से दूर होते जा रहे हैं, वही दूर देश में बसे भारतवंशी अपनी भाषा संस्कृति से इतनी दूर होने के और इतने समय बाद भी भारतीय संस्कृति को सीने से लगाए हुए हैं, यह देखना निश्चय ही ही सुखद था।
जिस प्रकार भारत में कुंभ के मेले धर्म से जुड़कर भारतीय संस्कृति और भारतीयता के महासमागम बन जाते हैं कुछ उसी प्रकार हिंदी से जुड़कर मॉरीशस का विश्व हिंदी सम्मेलन भी भारतीय धर्म संस्कृति का समागम था। जिसमें अपने से बिछड़े भारतवंशियों की संवेदनाओं के साथ साथ उनके द्वारा की गई प्रगति का गौरव भी शामिल था। जो कुछ भी था पाने के लिए ही था । खोने के लिए तो कुछ न था। हिंदी व भारतीय भाषाओंं के अलावा भी भारत से पहुंचे लोगों के लिए मॉरीशस में बहुत कुछ देखने को और उससे भी ज्यादा सीखने को था। मॉरीशस जो कि भारतवंशियों का ही देश माना जाता है वहाँ जिस प्रकार साफ-सफाई की खूबसूरती थी और उससे भी बढ़कर जो अनुशासन था, उसका कुछ अंश भी भारत वाले मॉरीशस से अपने सा हो सकता है ।
मैं और मेरे जैसे अनेक लोग जो हिंदी प्रेम के चलते निजी खर्चे पर मॉरीशस में आयोजित ग्यारहवें विश्व हिंदी सम्मेलन में पहुंचे थे, उनमें से मुझे कोई ऐसा नहीं मिला जिसे इस सम्मेलन में जाने से निराशा हुई हो। हर कोई भावनाओं से ओतप्रोत था। मॉरीशसवासियों का हिंदी और भारतीय संस्कृति के साथ-साथ भारतवासियों से प्रेम और भावनात्मक लगाव उनमें अपनत्व का संचार करता सा दिख रहा था। उस पर मॉरीशस की खूबसूरत समुद्री तट, ज्वालामुखी के अवशेष, प्राकृतिक सौंदर्य के साथ-साथ साफ सुथरा सुंदर देश ग्यारहवें विश्व हिंदी सम्मेलन में पहुंचे प्रतिभागियों को अभिभूत कर रहा था।
सम्मेलन में क्या खोया , क्या पाया की चर्चा में मुझे अपने विद्वान मित्र रविदत्त गौड़ की टिप्पणी बहुत सटीक लगी, ‘ डॉ सा’ब ! दही मथने पर हमें मक्खन तोलना चाहिए, न कि छाछ।’
डॉ. एम.एल. गुप्ता ‘आदित्य’