सीखने की प्रक्रिया यूँ तो मस्तिष्क की होती है लेकिन जुड़ी हुई मन से है। हम कोई दृश्य को कैसे देखते है ये हमारी मनःस्थिति पर निर्भर है। मन उस वक्त कौन सी दशा में है उस पर समझने की दिशा तय होती है। आसपास की परिस्थितियों का और अपनी खुद की भावनाओं का भी बहुत असर पड़ती है मन पर। मन जब सकुचाया सा, दबा हुआ या बोझिल होता है उस वक्त जो भी हम देख रहे है जो भी हम सुन रहे है या जो भी हम सोच रहे है उन सब का कोई तालमेल नही होता। तब आँखें सिर्फ़ देखती है।कान सिर्फ़ सुनते है। अपने मस्तिष्क में इस की कोई छाप नही बनती।
कभी-कभी बहुत प्रयासों के बाद भी हमें लगता है कि ये हम से नहीं होगा और हम प्रयास छोड़ देते है। मगर उस वक्त भी सीखने की प्रक्रिया तो हमारें आंतरिक मन में चलती ही रहती है और जब उसका प्रस्फुटन होता है तब हमें लगता है कि अरे..! ये तो मैनें सीखते सीखते छोड़ दिया था आज अचानक कैसे आ गया..!
सीखने की प्रक्रिया हरेक की भिन्न होती है। क्यूँकि हरेक की अपनी गति होती है। अपनी मति होती है। कोई औरों से सीखता है तो कोई खुद के अनुभवों से सीखता है। बचपन से लेकर मृत्यु तक ये प्रक्रिया जारी रहती है और रहनी भी तो चाहिए..! मानव जीवनभर सीखता रहता है तभी तो वो जिंदा है। जब भी रुक गया मानो मर गया कोई बंधियार जल की तरह। जो बहता है वही रहता है।
मैं भी तो सिख रहा हूँ आप सब से। बस धैर्यपूर्वक सिखाते रहिए। दोस्तों की जिम्मेदारी प्यार से सिखानी होती है। ठोकरों से तो मैं आज तक बहुत सीखा हूँ और दुश्मनों ने भी सिखाया है। कदम कदम सावधानी बरतना। सीखने को तो मैं तैयार हूँ एकदम बच्चा जैसा बस सिखाने वाला चाहिए। वो चाहे आप हो आप का प्यार और आपका धैर्य हो या फिर…।
पी एस धनवाल,
बालाघाट(मप्र)