छोटे बेटे की बीमारी से परेशान सुनीता जैसे तैसे अपने दिन काट रही थी । मजदूर पति सुरेश सुबह ही दिहाड़ी के लिए निकल जाता ।
मजबूरी थी उसकी बीमार बेटे को अनपढ़ पत्नी के भरोसे छोड़ कर जाना । खुद भी ज्यादा कहाँ पढ़ा – लिखा था वह। आठवीं पास को भला आज के जमाने में कौन पूछता है । कई जगह नोकरी के लिये कोशिश करने के बाद मजदूरी करने में ही उसने अपनी भलाई समझी। परिवार का पेट तो पालना ही था उसे ।
पत्नी भी मजदूरी करती थी संग -संग तो जैसे तैसे गुजारा हो जाता था पर अब बेटे को न जाने यह कौन सी अंग्रेजी बीमारी हो गई कि रोज ही खून की बॉटल लगवाओ ।
गरीब को कोई अपना खून क्यों देने लगा । इतना पैसा भी नही कि खरीद सके । बस अब तो सब भगवान की दया पर है । जिए या मरे । यही सोचकर वह दिहाड़ी पर जाने लगा और सुनीता घर रहकर बेटे की देखभाल करने लगी ।
एक दिन ज्यादा हालत बिगड़ती देख वे दोनों बच्चे को लेकर फिर सरकारी अस्पताल पहुंचे लेकिन खून न मिल सका । सुनीता तो अपने आँचल में बेटे को समेटे रोये ही जा रही थी । उसे रोता देख समीप बैठे एक नोजवान ने उससे कारण पूछा और अपना रक्त देकर उन्हें थोड़ी राहत दी, पर होनी को जो मंजूर था वही हुआ । बच्चा नहीं बचा।
मां का रूदन थमने का नाम नही ले रहा था मगर तभी सुरेश ने दुःखी ह्रदय से मन ही मन उस नोजवान का आभार व्यक्त कर यह प्रण ले लिया कि अब से वह हर जरूरतमंद के लिए रक्तदान करेगा , चाहे उसकी जान ही क्यों न चली जाए।
रक्त के अभाव में बेटे की मौत और उस नोजवान के रक्तदान ने सुरेश को एक बड़ी सीख दी थी जो अब कई जिंदगियों को बचाने के काम आने के प्रण में बदल चुकी थी।
# देवेंन्द्र सोनी, इटारसी।