मैं तुम्हारे साथ चलना चाहता हूँ।

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मैंने तुमको खो दिया इस
जिंदगी की कसमकश में
किन्तु तुमको देख पाया
प्यार की प्यारी बहस में
प्रेम की पीड़ा विरह के
अश्रुओं को याद करके
फिर तुम्हारे रंग में ढलना चाहता हूँ,
मैं तुम्हारे साथ चलना चाहता हूँ।।
जिंदगी को घोलकर के
जब पिया तब होश आया
कौन अपना है यहां पर
कौन है हमसे पराया
कष्टदायी है विरह की
बेबसी ये सोंचकर के
फिर तुम्हारा प्यार
पाना चाहता हूँ
फिर तुम्हारे रूठने
पर वो मनाने
का फखत अधिकार
पाना चाहता हूँ
है नहीं कुछ सुख तो फिर मैं तुम्हारे
दर्द के साये में पलना चाहता हूँ,
मैं निरन्तर टूटता हूं और बिखरता
तुमको पाकर अब संभलना चाहता हूँ,
मैं तुम्हारे साथ चलना चाहता हूँ।।
राह में बैठा भ्रमित
सा इक पथिक मैं
इक झलक पाने को
व्याकुल हूँ अधिक मैं
रात में सोते समय
हर स्वप्न में तुम
आँख में मोती लिए
मुस्कुरा रही हो
किन्तु जब भी आँख
खोला तो लगा है
दिन-ब-दिन तुम
दूर मुझसे जा रही हो
मैं रहा जीवन में अक्सर ही अकेला
किन्तु तुमसे रोज मिलना चाहता हूँ,
मैं तुम्हारे बाल के गजरे में अंकित
पुष्प बनकर रोज खिलना चाहता हूँ,
मैं तुम्हारे साथ चलना चाहता हूँ।।
ये जमाना है बड़ा
जालिम सितमगर
सच्चे लोगों को
सताना चाहता है
प्रेम से ये प्रेम
का उपहास करके
प्रेमियों को ये
मिटाना चाहता है
प्रेम के दुश्मन जमाने के लिए मैं
प्रेम की सूरत बदलना चाहता हूँ,
यदि जियूँ तो हो तुम्हारे साथ जीना
यदि मरूँ तो साथ जलना चाहता हूँ,
मैं तुम्हारे साथ चलना चाहता हूँ।।
मैं तुम्हारे साथ चलना चाहता हूँ।।

डॉ. विकास चौरसिया
चिकित्सा विज्ञान संस्थान
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी

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