
कुछ तो है , जो बदल रहा है।
ना जाने ये , क्या चल रहा है?
जल रहा है जो एक दीया सदियों से।
ऐ हवा ! अब ये तुमसे क्यों लड़ रहा है?
बुझ तो नहीं रही रोशनी धीरे-धीरे।
या फिर और जोरों से जल रहा है?
मालूम है मुझे , ये नहीं बुझने वाला।
पर पीछे ये खंजर कुछ कह रहा है।
कहे भी तो क्या! अल्फ़ाज़ नहीं है पास।
महसूस हुआ है , कुछ तो बदल रहा है।
हवा की धमकी का ज़रा सा भी डर है तो-
यह जलता हुआ दीया क्यों नहीं डर रहा है?
अब आँधियाँ नफ़रत की भी चलने लगी हैं।
फिर ये दीया कैसे अब तलक लड़ रहा है?
क्या करूँ? एक बोझ सा है सीने पे।
लेकिन बांवरा ! क्योंकर मचल रहा है?
बदलों से अंदाजा है , बारिश भी आने को है।
फिर ये किस ख्वाबों के महल में जल रहा है?
मैं समझ न पाया तो फिर क्या समझाऊं इसे।
ऐ हवा! तेरे साथ वक्त क्या कर रहा है?
लगता है कुछ अहसास दिलाना होगा इसको।
ख़ामोश ज़ज़्बात अब ये नहीं समझ रहा है।
ऐ हवा!!
दिग्विजय ठाकुर
लखनऊ