ग़ज़ल बनाया है मैंने ये घर धीरे-धीरे। खुले मेरे ख़्वाबों के पर धीरे-धीरे।। किसी को गिराया न ख़ुद को उछाला, कटा ज़िंदगी का सफ़र धीरे-धीरे।। जहाँ आप पहुँचे छलाँगें लगा कर, वहाँ मैं भी पहुँचा मगर धीरे-धीरे।। पहाड़ों की कोई चुनौती नहीं थी, उठाता गया यूँ ही सर धीरे-धीरे।। गिरा […]
