कविता दशक- राजकुमार कुम्भज की दस कविताएँ

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1. एक दिन ऐसा ही हुआ

एक दिन ऐसा ही हुआ,
मैं हुआ, दर्पण हुआ, फ़ासला हुआ।
कहने को तो वहीं मैं, वहीं दर्पण
लेकिन, उसी एक दर्पण में फ़ासला हुआ।
मैं वही, मगर वही, वैसा ही नहीं
जैसाकि था कल, वैसा नहीं हुआ,
एक दिन ऐसा ही हुआ।

2.अंतिम हवा नहीं होगी अंतिम

ऊपर की ऊपर
और नीचे की नीचे ही रह जाएँगी साँसें
अंतिम हवा चलेगी अंतिम जीवन की
मैं हो जाऊँगा शेष, कुछ भी रह नहीं पाऊँगा विशेष
वह मुझमें से बिखर जाएगा कहीं
दूसरों, तीसरों और अन्य अन्यों में
नए जीवन में, नए जीवन के लिए, नए जीवन की तरह
फिर-फिर जागते और जगाते हुए
वह मेरा अपना-सा अपना ही जीवन
कष्ट तो होंगे कई-कई बीच में
दुष्ट भी होंगे, कई-कई बीच में
दो-दो हाथ करेगा उनसे मेरा ही जीवन
जो तब होगा, अपना-सा अपनों में
वे जो होंगे, मेरे अपने मुझ जैसे ही
जब न रहूँगा मैं, रहेगा संसार वैसे ही
ऊपर से नीचे तक हर हाल ख़ुशहाल
अंतिम हवा नहीं होगी अंतिम।

3. है जो सही-सही

जो पाना नहीं चाहता हूँ, पा रहा हूँ,
और जो किसी भी हाल में गाना नहीं चाहता हूँ, गा रहा हूँ।
खिड़की, दरवाज़े खुले रखता हूँ सभी,
फिर भी मिलती नहीं है ताज़ी और साफ़ हवाएँ।
करूँ क्या कि आए, उठे एक भीषण तूफ़ान सभी के भीतर,
और सभी कुछ उलट-पलट जाए इधर से उधर
और मिले सभी को सभी कुछ वह,
है जो सही-सही।

4.खौलते हैं फूल

हँसते हुए कुछ देखा उसने,
फूल भी हँसने लगे हँसता हुआ देखकर उसे।
नमी थी उसकी आँखों में ओस जैसी,
फूलों में प्राणों की तरह खिलने लगी वह।
कुछ-कुछ उसके भीतर भी खिलने लगे फूल,
कहने लगे फूल कि ‘खिलता फूल है वह।’
कहने लगी वह
कि ‘फूलों के खिलने से ही खिलती है वह,
खिलते हैं फूल, खिलती है वह निरन्तर,
खौलते हैं फूल, खौलती है वह निरन्तर,
खिलना और खौलना एक नैसर्गिक प्रक्रिया है
जारी रहे खिलना और खौलना’।

5. लोहे के जूते में एक आदमी

लोहे के जूते में एक आदमी
तेज़ क़दम बढ़ाते हुए निकला घर से बाहर
उसके हाथों में एक छाता था, बीच में बारिश
शराबघर जाने की बजाय, वह थोड़ा मुड़ गया
उसे सामने एक बग़ीचा दिखाई दिया
जोकि किसिम-किसिम के फूलों से दहक रहा था
उस आदमी ने छाते के हत्थे से काम लिया
उसने कुछ फूलों को चुना और अपनी ओर झुकाया
अब कुछ फूल उसकी मुट्ठी में थे, जिन्हें उसने ताक़त से रगड़ा
और बारिश के कीचड़ में ज़मीन पर फेंक दिया
सबने देखा कि वहाँ कोई ईमानदार माली नहीं था
सूने और सुनसान, किन्तु दहक रहे उस एक बग़ीचे में
लोहे के जूते में एक आदमी बड़ी देर से बड़ी देर तक
मज़े-मज़े से टहलता रहा।

6.कवि का कमरा

कवि का कमरा,
एक कमरा है छोटा-सा
जिसमें समाया है संसारभर का संसार।
लगता ही नहीं है कि सिर्फ़ एक कमरा है ये,
समूचा संसार मज़े से रहता है यहाँ।
वह एक,
जो समूचे संसार से करता है प्रेम
बच्चों और स्त्रियों की तरह,
लगातार देखते हुए सपने
कवि का कमरा।

7. वही और वैसा ही सब

वही और वैसा ही सब
कुछ भी रहा है कब, जो रहेगा कल!
वही बादल, वही प्यास, फिर नहीं
वही
वही लोहा, वही नमक, फिर नहीं
वही रिश्ता, वही ख़ुशबू, फिर नहीं
फिर भी जाना पहचाना-सा बहुत कुछ
वही आग, वही पानी, फिर-फिर
वही सरकार, वही तकरार, फिर-फिर
वही सीना, वही साहस, फिर-फिर
वही और वैसा ही सब।

8. स्टूल पर कैसे बैठती है चिड़िया ?

स्टूल पर कैसे बैठती है चिड़िया?
तभी मैंने देखा कि स्टूल पर बैठा एक आदमी,
अपनी तमाम नैतिकताएँ और ज़रूरतें लेते हुए गया अंदर।
उस एक कमरे के अंदर
जहाँ बैठा था एक चतुर सुजान चिड़िमार।
गुफ़्तगू की दोनों बंदों ने चिड़िभाषा में ही
और मार दी चिड़िया, वह
जो बैठी थी बाहर प्रतीक्षारत कि होगा न्याय।
न्याय की चिड़िया भी आजकल गुफ़्तगू करती है
तो करती है कुछ इसी तरह
एक फ़कीरे के ज़रिए ही जान पाया मैं
ये रहस्य कि कमरे के अंदर बैठे आदमी के वजूद-विरुद्ध
स्टूल पर कैसे बैठती है चिड़िया?

9. मनुष्य होने के शिल्प

सवाल अनगिनत हैं
और अनगिनत हैं सलीके भी,
ज़िंदगी के, कविता के, भाषा के
लेकिन मनुष्य होने के शिल्प भी कोई कम नहीं,
जो आते हैं तो कविता से ही।

10. अभिनय

शासक कहता है,
‘थक गया है,
सो जा।’

मैं सोने का अभिनय करता हूँ।

शासक कहता है,
‘बच्चा है, खेल,
देश के लिए पदक ला,
देश का मान बढ़ा।’

और मैं खेलने का अभिनय करता हूँ।

लेकिन न मैं खेलता हूँ,
न मैं सोता हूँ,
न मैं अभिनय करता हूँ।

मैं एक ज़िम्मेदार नागरिक हूँ,
और अपनी ज़िम्मेदारी को
समझने की कोशिश करता हूँ।

राजकुमार कुम्भज,

इन्दौर, मध्यप्रदेश

परिचय-

राजकुमार कुम्भज का जन्म 12 फ़रवरी 1947 को मध्य प्रदेश के इंदौर में एक स्वतंत्रता सेनानी एवं किसान परिवार में हुआ। छात्र-जीवन से ही आप कविताएँ लिखने लगे और राजनीतिक रूप से सक्रिय रहे। 1972 में अपनी कविताओं की पोस्टर-प्रदर्शनियों के लिए चर्चित हुए, गिरफ़्तार भी किए गए। 1975 के आपातकाल में सक्रिय रहे और पुलिस दबिश का शिकार हुए। ‘चौथा सप्तक’ (1979) में शामिल किए जाने पर नाम-चर्चा और बढ़ी। ‘मानहानि विधेयक’ का विरोध करने के लिए ख़ुद को ज़ंजीरों में बाँध सड़क पर उतर आए थे। कवि, लेखक और स्वतंत्र-पत्रकार के रूप में सक्रिय बने हैं। मातृभाषा उन्नयन संस्थान ने वर्ष 2020 में ‘हिन्दी गौरव अलंकरण’ व श्री मध्यभारत हिन्दी साहित्य समिति ने वर्ष 2022 में आपको शताब्दी सम्मान से सम्मानित किया।

‘कच्चे घर के लिए’, ‘अनवरत’, ‘मैं चुप था जैसे पहाड़’, ‘जड़ नहीं हूँ मैं’, ‘खौलेगा तो खुलेगा’, ‘उजाला नहीं है उतना’, ‘कविता कारण दुःख’, ‘आग का रहस्य’ सहित 56 से अधिक काव्य-संग्रह प्रकाशित हैं। एक व्यंग्य-संग्रह ‘आत्मकथ्य’ शीर्षक से प्रकाशित है। वर्तमान में आप मातृभाषा उन्नयन संस्थान के संरक्षक हैं।
सम्पर्क- 331, जवाहर मार्ग, इन्दौर- 452002

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आपका जन्म 29 अप्रैल 1989 को सेंधवा, मध्यप्रदेश में पिता श्री सुरेश जैन व माता श्रीमती शोभा जैन के घर हुआ। आपका पैतृक घर धार जिले की कुक्षी तहसील में है। आप कम्प्यूटर साइंस विषय से बैचलर ऑफ़ इंजीनियरिंग (बीई-कम्प्यूटर साइंस) में स्नातक होने के साथ आपने एमबीए किया तथा एम.जे. एम सी की पढ़ाई भी की। उसके बाद ‘भारतीय पत्रकारिता और वैश्विक चुनौतियाँ’ विषय पर अपना शोध कार्य करके पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। आपने अब तक 8 से अधिक पुस्तकों का लेखन किया है, जिसमें से 2 पुस्तकें पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए उपलब्ध हैं। मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष व मातृभाषा डॉट कॉम, साहित्यग्राम पत्रिका के संपादक डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ मध्य प्रदेश ही नहीं अपितु देशभर में हिन्दी भाषा के प्रचार, प्रसार और विस्तार के लिए निरंतर कार्यरत हैं। डॉ. अर्पण जैन ने 21 लाख से अधिक लोगों के हस्ताक्षर हिन्दी में परिवर्तित करवाए, जिसके कारण उन्हें वर्ल्ड बुक ऑफ़ रिकॉर्डस, लन्दन द्वारा विश्व कीर्तिमान प्रदान किया गया। इसके अलावा आप सॉफ़्टवेयर कम्पनी सेन्स टेक्नोलॉजीस के सीईओ हैं और ख़बर हलचल न्यूज़ के संस्थापक व प्रधान संपादक हैं। हॉल ही में साहित्य अकादमी, मध्य प्रदेश शासन संस्कृति परिषद्, संस्कृति विभाग द्वारा डॉ. अर्पण जैन 'अविचल' को वर्ष 2020 के लिए फ़ेसबुक/ब्लॉग/नेट (पेज) हेतु अखिल भारतीय नारद मुनि पुरस्कार से अलंकृत किया गया है।