
1.हिंदी को मान दिलाना होगा
नाद ब्रह्म है, शब्द ब्रह्म है,
अखिल विश्व में आत्म ब्रह्म है।
वाणी है प्रतिबिम्ब हृदय का
हवन कुंड जलाना होगा।
वाणी का सामर्थ्य बढ़ाकर
राष्ट्र को सबल बनाना होगा।।
एक देश हो, एक धर्म हो,
जन-जन का बस एक लक्ष्य हो।
भाषाई वैमनस्य भुलाकर
ज्ञान का दीप जलाना होगा।
सूर और तुलसी का भारत
फिर से नया बनाना होगा।।
प्रेम और शांति का भारत,
त्याग, समर्पण का है भारत।
रामराज्य का स्वप्न देखते
राष्ट्र धर्म निभाना होगा।
भारत को सोने की चिड़िया
फिर से हमें बनाना होगा।।
पूरब और पश्चिम का भाई
मेल कभी क्या हो सकता है!
मूल्यहीन संस्कृति की कालिख
संकल्पों को तोड़ रही है।
अक्षय कर्म चेतना को अब
फिर अविलंब जगाना होगा।।
गिरता नहीं देश वह जिसकी
भाषा और साहित्य जगा हो,
प्रांतवाद भाषाई झगड़े और न हों अब
एक राष्ट्र और मानवता का
फिर से अलख जगाना होगा।
हिंदुत्व का मान बढ़ाना होगा।।
प्रांतवाद और राष्ट्रवाद का
झूठा भेद मिटाना होगा,
हिंसा से हल न निकलेगा
स्वाभिमान जगाना होगा।
राष्ट्र चेतना की उद्घोषक
हिंदी को मान दिलाना होगा।।
■
2. शिकार
ये युद्ध नहीं है आसान
न गोलियाँ चलतीं
न बम फूटते
गलियाँ सुनसान और
आवाज़ें क़ैद हैं
दरवाजों पर ताले जड़े हैं
अंधेरी कोठरियों में रहने की
मुनादी करवा दी गई है
दालानों ने भय की रहस्यमयी चादर ओढ़ ली है
दुश्मन दिखाई नहीं देता
वह आता है दबे पाँव
अचानक करता है आक्रमण
कब! कहाँ! से प्रकट हो जाएगा
कोई नहीं जानता!
सैनिक
हर दिशा में गश्त लगा रहे हैं
बिना हथियार
बिना जिरह बख्तर
अभिशप्त हैं सभी
खतरनाक वार झेलने
सिर्फ़ सीमा पर ही तैनात नहीं हैं सैनिक
समूचा विश्व छावनी बन चुका है
सम्मोहन में हैं आबाल वृद्ध
नीम बेहोशी की सुई लगा कर
चला गया है कोई
सड़कें सुनसान हैं और
उदासी की स्याही ने
ढक लिया है
खेतों का हरापन
शोर दुबक कर बैठ गया है
अंधेरे कोनों में
ख़ामोशी की खाली चादर
तन गई है
निशब्द हैं
तीर्थों के घाट
मौन हैं
मंदिर और इबादतगाह
प्रार्थनाएँ गूंगी हो चुकी हैं
गर्भगृहों में तैनात हैं
गश्ती टुकड़ियाँ
भले ही गंगा
फिर से पवित्र हो गई है
और हवा की साँसें भी
हो गई हैं लयबद्ध
पंछी नापने लगे हैं आसमान
बेख़ौफ़
फिर भी
धर्म मौन है और
चिंतन बेचैन
सारी धरती पत्थर बन चुकी है
जीवन मृत्यु के
दो छोरों पर
बाज़ीगर ने तान दी है रस्सी
कैसा है यह युद्ध ?
हर कोई डटा है
दम साधे
बावजूद इसके
कोई नहीं जानता
वह योद्धा है या
शिकार
किसी बनैले पशु का
■
3. युद्ध रत हेै ईश्वर
तुम्हे इंतज़ार था
एक देवता का,
लो उतर आए हैं देवता
धरती पर,
एक नहीं
थोड़ा-थोड़ा
कई लोगों में।
देवता उतर आए हैं
धरती पर,
त्राहि-त्राहि कर रही
बेघर और बेबस भीड़ को
पनाह देते मनुष्यों में।
जल, थल और वायुसेना के
हर एक जवान की
जूझ रही जिजीविषा में,
निराशा और हताशा से जूझते
मरनासन्न मनुष्यों को
जीवन का अमृत पिलाते चिकित्सकों और
सेवा कर्मियों में,
वे उतर आए हैं
धरती पर।
लिसलिसी संवेदनाओं और
क्रूर हिंसा के बीच,
संक्रमण से भरी गलियों, चौराहों और
धूल धूसरित रास्तों पर
भूख से व्याकुल बूढ़े,
बच्चों की भूख मिटाते
सेवादारों में,
सफाई कर्मियों में,
दिन-रात चाक चौबंद हैं वे,
साकार कर रहे हैं
सेवा परमोधर्म।
अशान्ति के तिमिर में
जो कर रही है अहर्निश
मृत्यु का आह्वान,
और रच रही है भय का माया जाल,
उसी अपरिभाषित
आसुरी शक्ति से युद्ध रत हैं देवता।
कौन कहता है
देवता आते नहीं हैं धरती पर?
वे उतर आए हैं मनोलोक से
योद्धा बन कर।
विश्वास करो इस कलयुग में
अवतार हुआ है ईश्वर का,
हमारी श्रद्धा का आलोक बन कर
वह प्रकट हुआ है धरती पर।
निरासक्त जीवन मृत्यु से
वह धंसने लगा है विचार में,
कई-कई रूप धर कर।
अबकी बार भूलोक पर
वह नहीं आया है अवतारी बन कर,
पाप पंक से विकृत हो चुकी
इस पृथ्वी को अभय देने
संघर्षरत हैं ईश्वर।
लो फिर उतर आए हैं देवता
धरती पर।
■
4. ख़ामोशी की इबादत
कुछ ख़्वाब
चंद मुस्कराहटें
कभी
सहेज कर रख दी थीं मैंने
दिल की गहराइयों में
अब झाँकती रहती हूँ
तक़रीबन
हर रोज़ ही
नींद के इंतज़ार वाले
पलों में
कुछ खिलखिलाहटें
पुकारती हैं तन्हाइयों में
वक्त की सलाइयों पर
जो बुने थे
कुछ अहसास
चंद ख़ुशबुओं
और बारिश की टपटप में
मैंने सहेज कर रखे थे
कुछ सपने
जब कभी चीख़ने लगते हैं
आवाज़ों के जंगल
मैं खोल लेती हूँ
जतन से सहेजी
रेशमी अहसासों की
वह नन्ही सी पोटली
और
सहला लेती हूँ
एकांत को
उम्र ठहरी है
अब भी
यादों में
जब कभी
कौंचती हैं तस्वीरें
तब वक्त
पिघलने लगता है
आँसुओं में
अब आईना सुनाता है
अक्सर
वो भूली हुई सी दास्तां ख़ामोशियों में।
■
5. सपने ज़िंदा हैं अभी
अधूरी हैं ख़्वाहिशें
सपने अब भी अटके हैं
अधखुली पलकों पर।
वो भूली-सी सरगोशियाँ
होंठों तक आकर
रुके-रुके से,
वो अल्फाज़
ले जाते हैं उँगली पकड़ कर
सपनीली दुनिया में,
अक्सर मैं खो जाती हूँ
सुकून के तिलिस्म में।
बीते हुए लम्हे वो
टुकड़ा-टुकड़ा,
वो आईने से बतियाना
धीमे-धीमे,
हर वक्त चौंक जाना,
घबरा कर सुबकना,
बेबात हँसना,
कभी
उदासियों में घिर जाना,
पलकों का झुक जाना,
ख़ुद का
ख़ुद से ही सिमटना,
और तन्हाइयों में डूब जाना।
थरथराती बारिश में
कभी चिड़ियों-सा चहकना,
कभी गुनगुनाना,
नन्ही फुहारों में
बाँहें फैलाए भीगना,
और चेहरे पर
बूंदों का फिसलना।
सुरमयी साँझ,
रुई के ढेर से बादल,
और बनते बिगड़ते चेहरों में
अनचाहे चेहरे की तलाश।
हसीन ख़्वाब बुनती
पलकों की नमी,
और मचलती लहरों-सी
ख़ामोश चाहतें,
ज़िंदा हैं अब भी
वो बीते हुए लम्हे
तन्हाइयों में,
अब भी झिलमिलाते हैं
कुछ टुकड़े सपनों के,
थकी-थकी पलकों की
ख़्वाहिशें अधूरी हैं
अब भी।
■
6. मुझे बनना है सूर्य का ताप
मैं शक्ति हूँ
पर दुर्गा नहीं बन पाई
कलाई भर कर पहन लेती हूँ चूड़ियाँ
सजा लेती हूँ माथे पर
सुर्ख बिन्दी
भरकर सिंदूर से माँग
सजाती हूँ ख़ुद को
और चाहती हूँ ख़ुश होना
मगर
जब आईने में देखती हूँ
ख़ुद को
पहचान नहीं पाती
ख़ुद को ही
खड्ग थामना चाहती हैं
चूड़ी भरी नर्म कलाइयाँ
आरक्त नेत्रों की ज्वाला से
झरती लपटें
भस्म करना चाहती हैं
चट्टानों को
नूपुर वाले पाँव
कुचलना चाहते हैं
विषैले भुजंगों को
सुनती हूँ
गंगा, यमुना, सरस्वती
कभी
देवलोक में रहने वाली देवी थीं
पता नहीं
किस शाप वश
भूलोक में
नदी बनकर बहने लगीं
एक अहिल्या थी
जिसे राम ने शिला से
स्त्री बना दिया था
कौन जानता है,
कितनी देवियाँ!
कितनी प्रतिमाएँ!
अभी भी शापग्रस्त पड़ी होंगी
प्राण प्रतिष्ठा की प्रतीक्षा में
वन प्रांतों में
गुफ़ाओं में या
पर्वतों में
सौंदर्य गाथाएँ लिखी गई हैं इतिहास के पन्नों में
फिर-फिर दोहराए जाने को
कभी मंदिर में रख कर
पूजा जाता है
कभी दासी बना कर
ज़ंजीरों में जकड़ा जाता है
कोई मुझसे क्यों नहीं पूछता
कि आख़िर
मैं क्या चाहती हूँ?
इस पृथ्वी पर मुझे भी साँस लेना है
मुझे नहीं बनना कवि की कल्पना
रहने दो अब मुझे मानवी
मुझे बनना है सूर्य का ताप और रोपना है दिलों में
उम्मीदों के बीज
कि फिर से लहलहा उठें
ईमान की फसलें।
■
7. उम्र का आख़िरी पडा़व
बचे रह गए अब भी
कुछ सवालात
आँसुओं के कुछ कतरे
बेचैनियों की सौगातें
कुछ दर्द
कुछ सवालात
कुछ लम्हों की कसक
बाक़ी है अब भी।
उलझनें तब भी थीं
अब भी हैं
साँसों का बेढब-सा शोर
तब भी था
अब भी है
सपनों के एकान्त में
चीख़ों का हुजूम
बेचैन करता है अब भी।
पथरीली थी राह
पिघलता था कोलतार
बढ़ते रहे क़दम बेख़्याली में
बीत गए अल्हड़ दिन बरस
कुछ ख़्वाब
कुछ शिकायतें
वो पुरसुकून लम्हों की तलाश
ख़्वाब ख़्वाब ही रहा
उम्र रुकी रही यादों में।
तस्वीरें कौंचती हैं अब भी
वक्त पिघलता है आँसुओं में
अब आईना सुनाता है
वो भूली दास्तान
अक्सर ख़ामोशियों में।
■
8. मैं ख़ुश हूँ
ख़ुश होने के लिए
मुझे ज़रूरत नहीं है
तुम्हारी
आख़िर होना भी क्यों चाहिए ?
ख़ुद से संतुष्ट होना
और अकेले ही
ख़ुश रहने का गुर
सीख लिया है मैंने
भरोसा जो कल
बिखर गया था
मैंने बटोर लिया है
टुकड़ा-टुकड़ा
आसमान से।
ज़माने की आँच मुझे
अब नहीं पिघला सकती
मैं नहीं हूँ मोम की गुड़िया
अब खड़ी रहूँगी मैं
चट्टान सी
मैं अब नहीं बहूँगी
रेत बन कर
तुम्हारे सितम
तुम्हारा गुरूर
बहुत हुआ
अब नहीं सहूँगी जैसे
सहती रही अब तक
सिर झुका कर
धक्का सह लिया है मैंने
और उठ खड़ी हुई हूँ आज
फिर से
मैंने देखा है आज
ख़ुद को
आईने में
मैं हो गई हूँ पहले से ज़्यादा
ख़ूबसूरत
और मज़बूत भी
मैं समझने लगी हूँ
अपनी ताक़त
और भरोसा करने लगी हूँ
ख़ुद पर
सामने है खुला आसमान
और हवा भी अब
नहीं लग रही है उदास
फूलों के रंग
कुछ और चटख हो चले हैं
और मैं ख़ुश हूँ
बेहिसाब
अब मैं खिलखिलाऊँगी बेख़ौफ़
जुगनुओं को थाम लूँगी हथेलियों में
बनूंगी अपना नसीब ख़ुद ही
मैं सजाऊँगी अपना घोंसला
ख़ुद अपनी पसंद से
और बढू़ंगी
नई राह पर।
आवाज़ें दे रही हैं मुझे
नई ख्वाहिशें
नई तमन्नाएँ
जिन्हें अनसुना करती रही थी अब तक
एक और नया अध्याय
लिखूँगी अब
अब मैं सीख गई हूँखड़े रहना
तान कर सीना
अब मैं
नाज़ करूँगी
ख़ुद पर ही।
■
9. आसमान का धरती हो जाना
चाहती अगर तो
मुट्ठी में भर सकती थी
सारा जहाँ,
हाँ! मैं कर सकती थी।।
छू सकती थी
आकाश की ऊँचाइयाँ,
मगर मैंने टिकाए रखे पाँव,
ज़मीन पर।
चारदीवारी के पार
मुझे बुला रही थीं
अनगिनत आवाज़ें।
मैंने अनसुना कर दिया।।
बाहर रौनक थी,
चकाचौंध थी,
शानोशौकत थी,
नफ़ासत थी।
भीतर रोटी की महक थी
चूल्हे की चमक थी,
किलकारियों की गूँज थी,
जिसने रोक दिया,
क़दमों को मेरे।
चारदीवारी को घर बनाने में जुटी रही मैं
कंधों से बस्ता उतारती,
भरे टिफ़िन को
खाली टिफ़िन में बदलते देख,
मुस्कराती रही।।
अनाथ आश्रम और
वृद्धाश्रम जाकर,
नक़ली मुस्कान के साथ
किताबी बातें करने का लोभ
मुझे खींचता रहा,
और मैं
गीले तौलिए समेटती रही,
बिखरी चीज़ें
करीने से लगाती रही,
इंतज़ार करती रही,
नन्हे क़दमों का
और
थकान से पस्त पति का।
गरम चाय और सच्ची मुस्कराहट से
सुकून देने भर को,
परम सुख मानती रही।
मैंने सुबह-शाम मन्नतें माँगी,
जोत जलाई,
चाँदजीतारों में उजाला ढूँढा,
तेज़ धूप और
बारिशों से तुम्हें बचाया।
अगरु, धूप और लोबान से
घर को महकाती रही,
तुलसी मैया से
तुम सबकी सलामती की
दुआएँ माँगीं,
द्वार पर रंगोली सजाई,
शांति की प्रार्थना करती रही।
हताशा में तुम्हें
निगल न ले सन्नाटा,
मैं दीवार बन कर डटी रही।
ऐसे वक्त से तुम्हें बचाती रही,
जब आँसुओं की नदी में
उफ़ान आ सकता था।
मैंने प्रेम के फूल उगाए
और ख़ुशबुओं के परिंदों को चहकते देखती रही।।
चाहती तो
बना सकती थी
अपनी ख़ूबसूरत दुनिया,
मगर इसके पहले
मुझे तुम्हारा ख़्याल आया।
मुझे पंख तो मिले थे
आसमान में उड़ने को,
मगर, मैंने चुना
धरती का यह छोटा-सा कोना।
मैंने तुम्हारे आँगन को
प्यार के ताप से संवारा।
सबकी भूख प्यास और
तृप्ति भरी मुस्कान के लिए,
मैं अपना वजूद पिघलते देखती रही।
मैंने सूरज को बिंदिया-सा,
माथे पर सजाकर,
तुम्हें जीवन पर
भरोसा करना सिखाया।
हाँ! मैं चाहती तो
हो सकती थी आसमान,
मगर, मैं आहिस्ता-आहिस्ता
धरती बन गई।।
■
10. कहो कि तुम औरत हो
क्यों लेती हो निश्वास?
अफ़सोस मनाती हो
कि जन्मी हो
औरत बन कर!
छोड़ो आँसू बहाना,
डूब जाएगी धरती
इन आँसुओं में।
तुम्हारी बांहों में समाया है
आसमान,
गोद में है सृष्टि,
तुम शक्ति हो ब्रह्मा की,
हो चेतना सौंदर्य की।
तुम खिला सकती हो
फूल
बंजर धरती में,
प्रवाहित कर सकती हो
अमृत
जीवन के मरुस्थल में।
धैर्य की माटी में,
तुम अंकुरित करो
बोधिवृक्ष,
और सींचो उसे
समर्पण से।
तुमने तो क्षमा कर दी हैं
काँटों की भी गुस्ताखियाँ,
और
उन गश्ती टुकड़ियों को भी,
जो गुज़र गईं
रौंद कर तुम्हारी छाती,
तुम्हें करती रहीं जो
क्षतविक्षत।
धोखे खाकर भी
तुम करती रहीं इंतज़ार,
समर्पण की मुस्कान
सजी रही तुम्हारे होंठों पर।
जो तुम्हें धकेलते रहे
पहाड़ से ,
तुम उन्हें भी उठाती रही।
तुमसे कहा हवाओं ने,
किस मिट्टी से बनी हो
तुम औरत
कि मिटती नहीं है
हस्ती तुम्हारी?
मात्र भृकुटी विलास से ही
तुम जीत लेती हो,
हर युग में
पंचतत्व।
तुम औरत हो,
सरल हो,
पर अबला नहीं हो।
पवित्र हो तुम
आयतों की तरह,
अभिसारिका भी हो
और ममतामयी माँ भी हो।
विनम्र हो तुम,
कुटिल नहीं।
सूर्य की जीवनशक्ति समेटे
हो तेज का पुंजीभूत रूप
तुम।
गहरी हो समुद्र-सी
और लबालब भरी हो प्रेम से,
मुस्कान हो तुम
विधाता की।
थर्रा उठेगा विश्व….
कहो फिर से
एक बार,
कहकर तो देखो
कि ‘औरत हूँ मैं।’
इस पृथ्वी पर
अद्भुत रचना हूँ मैं ईश्वर की।
एक औरत हूँ मैं….
■
डॉ. पद्मा सिंह
साहित्य मंत्री, श्री मध्यभारत हिन्दी साहित्य समिति, इन्दौर
परिचय-
एम.ए.हिन्दी साहित्य, प्रावीण्य सूची में सर्वप्रथम।(स्वर्ण पदक),कला संकाय की प्रावीण्यसूची में सर्वोच्च स्थान (एक स्वर्ण व दो रजत पदक)
▪ UGC नई दिल्ली द्वारा विशेष रूप से सम्मानित(1975)
▪ मध्य प्रदेश लोकसेवा आयोग से प्राध्यापक चयन सूची में प्रथम स्थान पर।
▪ सन् 1976 से सन् 2008 तक मध्य प्रदेश शासन के उच्च शिक्षा विभाग में प्राध्यापक पद और विभागाध्यक्ष पद पर कार्य।
▪2008 में प्राचार्य के पद पर पदोन्नति।शासकीय महा0 में कार्यरत रही हैं।
▪ फ़रवरी 2007 से सितम्बर 2012 तक प्रतिनियुक्ति पर “देवी अहिल्या विश्वविद्यालय इंदौर में तुलनात्मक भाषा एवं संस्कृति अध्ययनशाला” की निदेशक(Director) व विभाग प्रमुख।
▪”प्रौढ़ शिक्षा अध्ययन शाला” के निदेशक का अतिरिक्त प्रभार और विभाग प्रमुख।
▪अनेक विश्वविद्यालयों में ‘हिन्दी अध्ययन मण्डल’ की ‘विषय विशेषज्ञ’ रही हैं।
▪अपने कार्यकाल में आपने भाषा विभाग में हिन्दी, अंग्रेज़ी, संस्कृत और उर्दू विषय में एम. फ़िल., पीएच.डी. और डी. लिट्. के पाठ्यक्रम आरंभ करवाए।
▪देवी अ.विवि. के तुलनात्मक भाषा विभाग में स्नातकोत्तर स्तर पर “प्रयोजनमूलक हिन्दी” विषय में एम.ए. और “अनुवाद विज्ञान” के नए पाठ्यक्रम U.G.C.नई दिल्ली से स्वीकृत करवाकर शुरु करवाए।
▪भाषा अध्ययन शाला में “फ्रेंच” व “जर्मन” भाषाओं के नए कोर्स शुरु करवाए।
▪देवी अहिल्या विश्वविद्यालय इंदौर में ‘हिन्दी, संस्कृत, पालि और प्राकृत् विषय के अध्ययन परिषद् की 6 साल तक निरंतर “चेयरमैन” और पाठ्यक्रम निर्धारण हेतु केन्द्रीय अध्ययन मण्डल भोपाल की सम्मानित सदस्य रही हैं।
▪देवी अ.वि.वि. इंदौर में “तुलनात्मक भाषा और साहित्य” तथा “पालि, प्राकृत, संस्कृत व हिन्दी भाषा और साहित्य” के “अध्ययन परिषद्” की भी 6 वर्ष तक ‘चेयरमैन’ के पद पर रही हैं।
▪ अनेक राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय साहित्य संगोष्ठियों में अतिथि व अध्यक्ष के रूप में आमंत्रित रही हैं।
◆ सम्मान
▪ मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी सम्मान (2017)
▪श्री अम्बिकाप्रसाद दिव्य स्मृति प्रतिष्ठा सम्मान(16-17)
▪एन.सी.ई.आर.टी. दिल्ली का 30वाँ राष्ट्रीय बाल साहित्यकार सम्मान प्रसिद्ध लेखक गुलज़ार द्वारा(98-99)
▪रवीन्द्रनाथ टैगोर जन्म शताब्दी “स्वर्ण पदक”(1975)
▪आर. सी. जाल लोक परमार्थिक न्यास “स्वर्ण पदक”(1975)
▪न्यू यूथ सोशल ग्रुप इंदौर सरस्वती पुत्री साहित्य काव्य सृजन सम्मान(11 जन.1998)
▪अन्तर्राष्ट्रीय महिलावर्ष में इंदौर विश्वविद्यालय द्वारा 15 अगस्त 1976 को सम्मानित।
▪देवी श्री अहिल्या बाल साहित्य सृजन सम्मान
कानपुर(2005)
▪मीरा अग्रवाल स्मृति सम्मान, बाल कल्याण एवं बाल साहित्य शोध केन्द्र, भोपाल(2011)
▪ दसवाँ राष्ट्रीय बाल साहित्य पुरस्कार श्री ओंकारलाल स्मृति साहित्य सम्मान, सलिला संस्था सलुम्बर राजस्थान द्वारा।
▪2022 में श्रीधर जोशी विचार मंच का मालव मयूर सम्मान, सुशीला मिश्रा स्मृति साहित्य सुनिधि सम्मान।
▪लिटरेचर फेस्टिवल 2023 का साहित्य सुधि सम्मान।
▪मातृभाषा उन्नयन संस्थान का भाषा सारथी सम्मान (2023)
▪सत्कार कला केंद्र इंदौर, म.प्र. का प्रतिष्ठित सम्मान देवी अहिल्या नारी गौरव अलंकरण(2024)
▪छत्तीसगढ़, नागपुर, हिन्दीअध्यन परिषद् की मानद सदस्य और विषय विशेषज्ञ व अनेक विश्वविद्यालयों की पी.एचडी.परीक्षक रही हैं।
▪राजस्थान विश्वविविद्यालय द्वारा प्राध्यापक चयन परीक्षा प्रथम श्रेणी पद हेतु साक्षात्कार के लिए विषय विशेषज्ञ के रूप में आमंत्रित।
▪मध्य प्रदेश लोकसेवा आयोग में हिन्दी विषय की परीक्षक व प्रश्न पत्रों की मॉडरेटर।
Ph.D निदेशक-हिन्दी
16 छात्र पी.एचडी.कर चुके हैं। एम.ए.और एम.फ़िल. में लगभग 250 विषयों पर शोधकार्य कराया है।
▪अनुवाद निर्देशन-विद्यार्थियों ने संस्कृत और अंग्रेज़ी भाषा से हिन्दी भाषा में 7 पुस्तकों का अनुवाद किया है।
▪आपने 4 नृत्य नाटिकाएँ लिखी हैं, जो प्रसिद्ध नृत्यांगना प्रो.(डॉ.) सुचित्रा हरमलकर के निर्देशन में मंचित हो चुकी हैं।
(अभय प्रशाल व डेली कालेज, इंदौर में मंचित)
▪सन् 2000 में “हिन्दी लघुकथा साहित्य में प्रयोगधर्मी चुनौतियाँ” विषय पर राष्ट्रीय संगोष्ठी की निदेशक रह कर एक शोध पत्रिका का प्रकाशन व सम्पादन किया है।
▪आपने प्राचार्य पद पर रह कर पीथमपुर के शा.महाविद्यालय में दो वर्षों तक “विचार वीथिका” और “संचरण” शीर्षक से विद्यार्थियों की सहभागिता के साथ दो “हस्तलिखित” कला और साहित्य की “पत्रिकाओं का सम्पादन” किया।
▪ आप विगत 45 वर्ष से इंदौर की साहित्यिक संस्था श्री मध्यभारत हिन्दी साहित्य समिति’ से जुड़ी हैं और “साहित्यमंत्री”, “प्रकाशन मंत्री” “शोध मंत्री” जैसे महत्त्वपूर्ण पदों पर कार्यरत रही हैं।
▪ वर्तमान में 113 वर्ष प्राचीन साहित्यिक संस्था “श्रीमध्य भारत हिन्दी साहित्य समिति, इंदौर” के “साहित्य एवं संस्कृति मंत्री” के पद पर कार्य कर रही हैं।
▪आपने देवी अहिल्या विश्वविद्यालय के ई. एम. आर. सी. विभाग के सहयोग से इंटरनेट के द्वारा हिन्दी साहित्य के विभिन्न प्रदेशों के छात्रों के लिए “सीधे साहित्यिक” पाठ्यक्रम प्रसारित किए हैं।
▪वीणा’ पत्रिका में आपने साहित्यकारों पर केंद्रित “हमारी विरासत” शीर्षक से एक वर्ष तक स्तंभ लिखा है।
▪आपके द्वारा सम्पादित पुस्तकें विश्वविद्यालयों के हिन्दी साहित्य और भाषा के पाठ्यक्रमों में शामिल हैं।
▪आपने विश्वविद्यालय की हिन्दी अध्ययन परिषद् एवं पाठ्यक्रम समिति के अध्यक्ष पद पर रहते हुए “मालवी भाषा” को पहली बार विश्वविद्यालय के स्नातक पाठ्यक्रम में शामिल करवाया है।
▪बी.ए. तृतीय वर्ष के हिन्दी पाठ्यक्रमों के लिए साहित्यकारों की रचनाओं का चयन कर स्नातक पाठ्यक्रम की तीन पुस्तकों का सम्पादन किया है:
(1) मालवी भाषा और साहित्य
(2) हिन्दी एकांकी
(3)निबंध एवं अन्य विधाएँ।
●प्रकाशित पुस्तकें
नृत्य नाटिकाएँ
(1) शिल्पी
(2) समुद्र मंथन
(3) घन बरसे
(4) बूंद बूंद अमृत
●प्रकाशित कविता संग्रह
(1) शब्द की हथेलियों में
(2) फूलों को खिलना है
(3) एक सूर्य मेरे भीतर
(4) झरते रहेंगे शब्द जब त
(5) खिलेंगे फिर राख के बीच से
(6) कलम उगलती आग
(7) सार्थक कविता की तलाश में
(8) FRAGRANT FEELINGS (Translated)
(9) हवा में तैरते दर्द के ख़ामोश अफ़साने”
(10) पद्मासिंह की कविताएँ (125 कविताएँ)
●निबंध संग्रह
आत्म चिंतन में जगत दर्शन
▪कविताओं का अंग्रेज़ी और मराठी भाषा में भी अनुवाद हुआ है।
▪सन् 1970 से अब तक आकाशवाणी एवं दूरदर्शन से कहानी, कविता आलेख व चर्चाओं का लगातार प्रसारण होता रहा है।
-डॉ.पद्मासिंह
पूर्व प्राचार्य एवं निदेशक
तुलनात्मक भाषा एवं संस्कृति अध्ययन शाला