यकीं का यूँ बारबां टूटना आबो-हवा ख़राब है मरसिम निभाता रहूँगा यही मिरा जवाब है मुनाफ़िक़ों की भीड़ में कुछ नया न मिलेगा ग़ैरतमन्दों में नाम गिना जाए यही ख़्वाब है दफ़्तरों की खाक छानी बाज़ारों में लुटा पिटा रिवायतों में फँसा ज़िंदगी का यही हिसाब है हार कर जुदा, जीत कर भी कोई तड़पता रहा नुमाइशी हाथों से फूट गया झूँठ का हबाब है धड़कता है दिल सोच के हँस लेता हूँ कई बार तब्दील हो गया शहर मुर्दों में जीना अज़ाब है ये लहू, ये जख़्म, ये आह, फिर चीखो-मातम तू हुआ न मिरा पल भर इंसानियत सराब है फ़िकरों की सहूलियत में आदमियत तबाह हुई पता हुआ ‘राहत’ जहाँ का यही लुब्बे-लुबाब है #डॉ. रूपेश जैन ‘राहत’ Post Views: 397
rupesh
शी इश्क़ किया तो फिर न रख इतना नाज़ुक दिल माशूक़ से मिलना नहीं आसां ये राहे मुस्तक़िल तैयार मुसीबत को न कर सकूंगा दिल मुंतकिल क़ुर्बान इस ग़म को तिरि ख़्वाहिश मिरि मंज़िल मुक़द्दर यूँ सही महबूब तिरि उल्फ़त में बिस्मिल तसव्वुर में तिरा छूना हक़ीक़त में हुआ दाख़िल कोई हद नहीं बेसब्र दिल जो कभी था मुतहम्मिल गले जो लगे अब हिजाब कैसा हो रहा मैं ग़ाफ़िल तिरे आने से हैं अरमान जवाँ हसरतें हुई कामिल हो रहा बेहाल सँभालो मुझे मिरे हमदम फ़ाज़िल नाशाद न देखूं तुझे कभी तिरे होने से है महफ़िल कैसे जा सकोगे दूर रखता हूँ यादों को मुत्तसिल #डॉ. रूपेश जैन ‘राहत’ Post Views: 420
कुछ ख़्वाब बुन लेना जीना आसान हो जायेगा दिल की सुनलेना मिज़ाज शादमान हो जायेगा मुद्दत लगती है दिलकश फ़साना बन जाने को हिम्मत रख वक़्त पे इश्क़ मेहरबान हो जायेगा टूटना और फिर बिखर जाना आदत है शीशे की हो मुस्तक़िल अंदाज़ ज़माना क़द्रदान हो जायेगा लर्ज़िश-ए-ख़याल में ज़र्द किस काम का है बशर जानें तो हुनर तिरा मुल्क़ निगहबान हो जायेगा मंज़िल-ए-इश्क़ में बाकीं हैं इम्तिहान और अभी ब-नामें मुहब्बत ‘राहत’ बेख़ौफ़ क़ुर्बान हो जायेगा डॉ. रूपेश जैन ‘राहत’ Post Views: 351
ज़िंदगी के रंग मंच पर आदमी है सिर्फ़ एक कठपुतली । कठपुतली अपनी अदाकारी में कितने भी रंग भर ले आख़िर; वह पहचान ही ली जाती है, कि वह मात्र एक कठपुतली है । ऐसे ही आदमी चेहरे पर कितने ही झूठे-सच्चे रंग भरे अंत में, रंगीन चेहरे के पीछे असली चेहरा पहचान ही लिया जाता है | #डॉ. रूपेश जैन ‘राहत’ Post Views: 387
जिस सहर पे यकीं था वो ख़ुशगवार न हुयी देखो ये कैसी अदा है नसीब की समझा था जिसे बेकार, वो बेकार न हुयी मांगी थी जब तड़प रूह बेक़रार न हुयी कहूँ अब क्या किसी से देखकर माल-ओ-ज़र भी मिरि चाहतें तलबगार न हुयीं सोचा था जिन्हे अपना वो साँसें मददगार न हुयीं है अजीब अशआर क़ुदरत की भूल से छोड़ा था जिसे हमने वो निगाहें शिकबागार न हुयीं #डॉ. रूपेश जैन ‘राहत’ Post Views: 576