यकीं का यूँ बारबां टूटना आबो-ह
मरसिम निभाता रहूँगा यही मिरा ज
मुनाफ़िक़ों की भीड़ में कुछ नया
ग़ैरतमन्दों में नाम गिना जाए यही ख़्वाब है
दफ़्तरों की खाक छानी बाज़ारों में लुटा पिटा
रिवायतों में फँसा ज़िंदगी का यही हिसाब है
हार कर जुदा, जीत कर भी कोई तड़प
नुमाइशी हाथों से फूट गया झूँठ
धड़कता है दिल सोच के हँस लेता हूँ कई बार
तब्दील हो गया शहर मुर्दों में
ये लहू, ये जख़्म, ये आह, फिर ची
तू हुआ न मिरा पल भर इंसानियत स
फ़िकरों की सहूलियत में आदमियत त
पता हुआ ‘राहत’ जहाँ का यही लु
#डॉ. रूपेश जैन ‘राहत’