अभागा

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prabhat dube
चकाचौंध रोशनी में नहाया राधेश्याम जी का घर ऐसा लग रहा था-मानो दीपावली आज ही हो। मेहमानों से भरा हुआ घर,सभी हर्षोउल्लास से भरे थे। राधेश्याम जी के सीढ़ियों से उतरते  ही सभी तालियों से उनका स्वागत करने लगे। आखिर क्यूँ न हो,साहित्य के बड़े सम्मान से उनको आज ही नवाजा गया था,लेकिन उनके चेहरे पर खुशियां आना न चाहती हो ऐसा प्रतीत हो रहा था।
तभी किसी ने बोला-महाशय हमें कुछ आज आपसे सुनना है,कुछ अपने बारे में हमें तो बताएँ।
सामने हॉल में बने छोटे से मंच पर जाते हुए राधेश्याम जी की आंखों में आंसूओं  की ज्वार फूट पड़ी।
अपने-आप को संभालते हुए शब्दों को नई दिशा देने की कोशिश में शुरुआत की,
‘आदरणीय मैं कुछ भी नहीं हूं। मैं तो एक अभागा,,,,,,,हूं,जिसकी पहचान आपने बनाई,गांव से आया हूँ। शहर की इस भव्य रोशनी में जैसे मैं आज भी अकेला हूँ,मेरा अपना कोई नहीं। आप इसलिए हमें जानते हैं,क्योंकि साहित्य का एक जाना-पहचाना चेहरा हूँ। आज मुझे एक प्रतिष्ठा मिली है इसलिए आप सब यहाँ आए,मगर मेरा अपना कोई नहीं। अगर ये शोहरत न होती तो आप यहां न होते ,मगर मेरा अपना तो कोई भी नहीं इस महफ़िल में। जब में कुछ भी नहीं था,तब भी हर छोटी-छोटी खुशी में मेरे दोस्त-मेरे रिश्तेदार मुझे बधाई देने आते। उस वक्त मैं न ही कोई साहित्यकार था,और न ही कोई पहचान,मगर उनका प्यार हमेशा मेरे साथ रहा। आज यहाँ आप-सबके साथ हूँ फिर भी मेरे मन आज उन लोगों के लिए है,जो मुझे मेरे उपलब्धि के लिए नहीं,मेरे लिए मुझे चाहते थे,लेकिन आज वो यहाँ नहीं हैं। क्या मैं अभागा नहीं हूं ? इस खुशी की महफ़िल में जो मुझसे प्यार करते थे और आज मेरी ही सफलता पर वो साथ न हों तो मुझसे बड़ा अभागा कौन होगा, मुझसे बड़ा अभागा कौन होगा ?’
इस पर हाल में तालियों की गड़गड़ाहट गूँजती है,मगर जैसे एक गंभीर सवाल सबके चेहरे पर छोड़ देती है। कहीं
मैं भी तो अभागा नहीं…..?
                                                      #प्रभात कुमार दुबे 

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