सामान्यतः नीतिगत विचारों को,उसके सिद्धान्तों को व्यवहार में अपनाना ही नैतिकता कहलाता है। यह नीतिगत विचार और सिद्धान्त,देशकाल,समय तथा परिस्थितियों के अनुसार सबके लिए अलग-अलग हो सकते हैं। जब इनमें भिन्नता आती है तो उसे अनैतिकता का नाम दे दिया जाता है।
विचार करें तो पाते हैं-किसी के लिए भी झूठ बोलना अनैतिक है। कोई भी इससे असहमत नहीं,लेकिन एक अधिवक्ता के लिए यही झूठ,कर्म में बदलकर नैतिकता के दायरे में आ जाता है। सभी मानते हैं-चोरी करना अनैतिक है,लेकिन जब यह कर्म में बदलता है तो करने वाले की रोजी-रोटी का साधन बन जाता है। उसके लिए यह नैतिक है। स्त्री की देह(व्यापार) का उपयोग कहीं नैतिक है तो अनैतिक भी है। कहीं ५ पति होना नैतिक है,४ विवाह करना नैतिक है तो कहीं ये सब अनैतिक भी है। कहने का तात्पर्य सिर्फ इतना है कि, `नैतिकता` बहुत लचीली होती है। इसे एक सिद्धान्त या एक राय से संचालित नहीं किया जा सकता,और न ही अपनाया जा सकता है। नैतिकता के सामान्य और सर्वमान्य सिद्धान्तों को स्वीकारते हुए यदि हम उन्हें आचरण में लाते हैं,तो वे धीरे-धीरे हमारे संस्कार का रूप धारण कर लेते हैंl यहीं से फिर स्व संस्कृति का विकास होता है। यही संस्कार ईश वंदना से लेकर तमाम सामाजिक,पारिवारिक दायित्वों के निर्वहन का संवाहक बनता है,जिसे हम नैतिकता और आदर्श का नाम दे देते हैं।
किसी घर में बड़ों को चरण स्पर्श किया जाता है,किसी घर में गले लगाया जाता है। दोनों ही तरीके नैतिकता के दायरे में आते हैं,पर कहीँ ये गलत हैं तो कहीं ये सही हैं। ऐसे अनेक उदहारण हैं,जो सोचने पर विवश करते हैं कि-आखिर क्या है नैतिकता ?,कैसे बचाएं इसे ?,तो मुझे एक ही उत्तर मिलता है-सर्वमान्य सिद्धान्तों और स्व आचरण को मानते हुए मर्यादा में अपना जीवन व्यतीत करें और लोकोपयोगी कार्य के सहभागी बनें। यही सबसे बड़ी नैतिकता है,जिसे हम सप्रयास बचा सकते हैं।
#देवेन्द्र सोनी