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बद-से-बदतर हो रहे,निर्धन के हालात।
सुरसा-सी बढ़ने लगी,मँहगांई दिन-रात॥
सूरज नया उगा रहे, मचा-मचाकर शोर।
लोकतंत्र को लूटते, लोकतंत्र के चोर॥
रोता आँसू खून के, है मजदूर-किसान।
मातम करते खेत हैं,मरघट से खलिहान॥
राजपथों तक ही सदा,सिमटा रहा विकास।
पगडंडी की पीर का,किसको है अहसास॥
लगी पेट की आग ने,दिया पलायन श्राप।
सूनी गलियाँ गाँव की,करतीं मूक विलाप॥
परम्पराएं छोड़ हम,पाल रहे नव रीत।
तुलसी बेगानी हुई,नागफनी से प्रीत॥
कानों में जबसे पड़े,कट्टरता के गीत।
मुरझाए से फूल हैं,कलियाँ हैं भयभीत॥
तन पर चोला संत का,असुरों जैसे काम।
कुछ दुष्टों ने कर दिया,धर्मों को बदनाम॥
धर्म ध्वजावाहक हुए,भौतिकता में लीन।
बंसल दामन श्वेत पर,अंतस बहुत मलिन॥
#सतीश बंसल
परिचय : सतीश बंसल देहरादून (उत्तराखंड) से हैं। आपकी जन्म तिथि २ सितम्बर १९६८ है।प्रकाशित पुस्तकों में ‘गुनगुनाने लगीं खामोशियाँ (कविता संग्रह)’,’कवि नहीं हूँ मैं(क.सं.)’,’चलो गुनगुनाएं (गीत संग्रह)’ तथा ‘संस्कार के दीप( दोहा संग्रह)’आदि हैं। विभिन्न विधाओं में ७ पुस्तकें प्रकाशन प्रक्रिया में हैं। आपको साहित्य सागर सम्मान २०१६ सहारनपुर तथा रचनाकार सम्मान २०१५ आदि मिले हैं। देहरादून के पंडितवाडी में रहने वाले श्री बंसल की शिक्षा स्नातक है। निजी संस्थान में आप प्रबंधक के रुप में कार्यरत हैं।
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