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कुछ आशाओं के जुगनू ने
मन के भीतर दम तोड़ दिया,
कुछ यौवन पाते सपनों ने
अब साथ हृदय का छोड़ दिया।
क्या पाना था,क्या खोया है
अब है इसका उल्लेख नहीं,
अन्दर ही अन्दर सागर हैं
बाहर पानी की रेख नहीं।
ये स्वप्न पंथ था किधर चला
है इसका कुछ भी भान नहीं,
वो सपने यूं निर्जीव लगें,
जैसे शरीर में प्राण नहीं।
इस जीवन की बाधाओं ने
अब किन राहों पर मोड़ दिया,
कुछ आशाओं के जुगनू ने
मन के भीतर दम तोड़ दिया।
ये मन का पंछी व्याकुल-सा
था नगर-नगर उड़ता रहता,
आशाओं का ये दीप्त काफिला
संग-संग जुड़ता रहता।
पर इस मधुवन के कोने में
कुछ सूखे तरु-सा सूख रहा,
था लक्ष्य साधना आवश्यक
पर बाण लक्ष्य से चूक रहा।
इक तेज वेग के पत्थर ने
इस स्वप्न कलश को फोड़ दिया,
कुछ आशाओं के जुगनू ने
मन के भीतर दम तोड़ दिया॥
#अभिषेक सार्थक
परिचय : अभिषेक सार्थक की जन्मतिथि -१८ जुलाई १९९७ और जन्म स्थान- ग्राम घरथनियां है। उत्तर प्रदेश राज्य के
शहर-लखीमपुर (खीरी) निवासी अभिषेक सार्थक फिलहाल एम.ए. में अध्ययनरत हैं। आप श्रॄंगार भाव की कविता अधिक लिखते हैं। आपके लेखन का उद्देश्य-शौक है।
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