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(प्रेमचंद जयंती पर विशेष)
प्रेमचंद के पुनर्पाठ की आवश्यकता आज के संदर्भों में की जानी चाहिए;ये बात सही है,लेकिन आज की स्थितियाँ बहुत से क्षेत्र में मानवीय और भौतिक विकास करने की सोच की दिशा और प्रयत्नों में बदल चुकी हैं। आज पहले से भी अधिक कारगर शोषण के हथियार कई स्तरों पर ईजाद हो गए हैं। प्रेमचंद के युग में चल रहे शोषण के चक्र को सामंतवादी नज़रिए से आँका जा सकता है,क्योंकि वहाँ शोषण का सारा खेल सामंती सोच और व्यवहार पर आधारित है। एक और सामंतवादी दृष्टि है,तो दूसरी ओर राष्ट्र को पराधीनता से मुक्त कराने का सक्रिय प्रयास। प्रेमचंद जब लिख रहे थे तब राष्ट्र पराधीन था और स्वतन्त्रता की मांग प्रबल होने के साथ व्यापक जनसमूह का सपना गुलामी और दासता से मुक्ति था। आज स्वातंत्र्य के नाम पर जिस तरह की अराजकता का सामना किया जा रहा है,वह ख़तरनाक ही नहीं, बल्कि दुष्परिणामों के साथ भीषण और घातक अवस्था है। इस स्वातंत्र्य की सकारात्मकता को लोगों,संगठनों, संस्थाओं,राजनीतिक दलों द्वारा जिस तरह का अंजाम दिया जा रहा है,वह एक वर्ग विशेष (दलितों,शोषितों और स्त्री को छोड़कर) को सामाजिक स्तर पर गलत तरीकों से ऊपर ले आने की जीती जागती कोशिश है,और ऐसी कोशिश लोकतान्त्रिक पूंजीवाद से उपजे परिणामों की ही देन है। आज वैचारिक स्वातंत्र्य का जैसा लाभ नकारात्मक विचारों को पोषित कर रहा है,वैसा पिछले समय में या प्रेमचंद के समय में कम देखने को मिलता है। वैचारिक स्वतंत्रता की नली से जिस तरह का ज़हर संस्थाओं,दलों और तथाकथित नेतृत्ववादी लोगों द्वारा उगला जा रहा है,पिलाया जा रहा है; वह मानवीय समाज को किसी बेहतर स्तर पर न ले जाकर गर्त की दिशा की ओर ही उन्मुख कर रहा है। किसी एक वर्ग विशेष का अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए समाज में झूठे हितों का ध्यान रखना,वो भी धर्म-सम्प्रदायवाद या पूंजीवाद की भूमि पर खड़े रहकर,सरासर गलत और समाज के बाकी बाशिंदों के लिए अहितकर ही है। वर्ग विशेष और सवातंत्र्य के अधिकारों की बात प्रेमचंद के साहित्य में भी पुरजोर तरीके से कही गई है,लेकिन वहाँ किसी धर्म-संप्रदाय की भूमि पर खड़े होकर नहीं कही गई है,बल्कि मानवीय भूमि को आधार बनाया गया है और शोषित-वंचित वर्ग की हिमायत करते हुए उसकी वकालत की गई है। प्रेमचंद का समस्त साहित्य स्वातंत्र्य की कामना अथवा माँग का साहित्य है,उसके कई क्षेत्र,स्तर,चरण और सोपान हैं। वैचारिक स्वतन्त्रता के साथ राष्ट्र की स्वतंत्रता की कामना का एक महत्त्वपूर्ण अनथक प्रयास प्रेमचंद के साहित्य का प्राण है। प्रेमचंद का साहित्य मानव मुक्ति की कामना का साहित्य तो है ही,साथ ही एक ऐसे समाज और राष्ट्र का निर्माण करने का आकांक्षी है,जहां शोषण का कोई स्थान न हो,यह कोई आदर्शवादी कामना का उपजा परिणाम या दृष्टि नहीं है; यह यथार्थ समाज की एक मानवीय मांग है।
प्रेमचंद का साहित्य वर्ग विशेष की बात करता है,लेकिन किसी साजिश के तहत नहीं करता कोई राजनीतिक आन्दोलन नहीं और न ही किसी ‘वाद’ से प्रभावित है, ‘वाद’ से इसलिए प्रभावित नहीं माना जा सकता है कि,प्रेमचंद अपने जीवन काल में अलग-अलग सामाजिक, आर्थिक,राजनीतिक और सांस्कृतिक स्तर पर जीते हुए अलग-अलग वैचारिक प्रणालियों को ग्रहण करते हैं,अलग–अलग समकलीन व्यक्तित्त्वों का प्रभाव उन पर पड़ता है। कहीं वह गांधीवाद से प्रभावित नज़र आते हैं,कहीं पर विवेकानंद और कहीं पर आर्य समाज का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। अपने जीवन के अंतिम काल में वह मार्क्सवाद से जुड़ जाते हैं और शोषक-शोषित की अवस्थाओं पर खुला विचार करते हैं। प्रेमचंद अपने स्तर पर पहले से ही प्रगतिशील थे,जब मार्क्सवाद का प्रभाव उन पर पड़ता है या मार्क्सवाद का परिचय पाते हैं, तो अपनी वैचारिक पद्धति से मेल खाता देखकर वह उसी को समर्पित हो जाते हैं। प्रेमचंद के साहित्य (चाहे वह कहानी हो या उपन्यास) में समस्त पात्रों की गहराई से पड़ताल करने से उनपर अलग-अलग छाया आसानी से देखी जा सकती है, जो कि प्रेमचंद के विकास के सोपानों के लक्षण नज़र आते हैं। आज ज़रूरत है कि,प्रेमचंद की परंपरा का निर्वाह करते हुए साम्राज्यवाद,सांप्रदायिक और फासीवादी ताकतों से संघर्ष करना होगा। यह लड़ाई सिर्फ हिन्दी के साहित्य के माध्यम से बेहतर और कारगर तरीके से की जा सकती है,क्योंकि पत्रकारिता में इतनी सलाहियत नहीं कि,सच को संसार के सामने ला सके,उसके पास शोधात्मक दृष्टि नहीं और न ही ज़िम्मेदारी का बोध है। यह केवल सनसनीखेज माध्यम बनकर रह गया है,उसके पीछे लोकतान्त्रिक पूंजीवाद की ताकत काम कर रही है। जिस तरह से पत्रकारिता को अपनी ज़िम्मेदारी का निर्वाह करना चाहिए,उस तरह के प्रयास आज नगण्य ही हैं। सूचना क्रांति ने सूचनाओं का प्रसार तो किया,लेकिन पूंजीवादी अर्थव्यवस्था ने अपने पंजे वहाँ भी फैला दिए और इसे अपनी गिरफ्त में ले लिया। प्रेमचंद के काल में पत्रकारिता की बात करें तो, कोई उन्नत साधन नज़र नहीं आते हैं, ले दे के माध्यम के रूप में केवल अखबार ही दिखाई देता है,तब सूचनाओं को फैलाने का माध्यम शिथिल था,लेकिन साथ ही सशक्त माना जा सकता है,क्योंकि साहित्यकार ही वह भी हिन्दी का साहित्यकार अपनी भूमिका दोहरे-तिहरे स्तर पर निर्वाह कर रहा था। एक ओर वह साहित्यकार भी है,तो दूसरी ओर वह पत्रकार भी है,साथ ही तीसरे स्तर पर वह आम आदमियों के बीच जीता हुआ साधारण व्यक्ति है,जो अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह करता चला जा रहा है,वह भी बिना किसी व्यावसायिकता के। ऐसा साहित्यकार-पत्रकार किसी वर्ग विशेष का संचालन या नेतृत्व नहीं कर रहा है और न ही उसके केन्द्र में आर्थिकता का सवाल है और न ही किसी धर्म-संप्रदायवाद से परिसंचालित है,वह अपनी लेखनी के माध्यम से मानव मुक्ति की कामना को केन्द्र में रखकर अपना कर्म बड़ी ईमानदारी से कर रहा है। वह फासीवादी शक्तियों से लोहा लेते हुए उनके विरुद्ध संघर्ष कर रहा है। इस संदर्भ में ‘हंस’ को लिया जा सकता है।‘हंस’ प्रगतिशील विचारों का ऐसा मासिक पत्र था, जो शोषण,अत्याचार,साम्राज्यवाद का खुलकर विरोध करता हुआ पूंजीवादी ताकतों से जाकर भिड़ जाता है और सर्वहारा वर्ग के अधिकारों की मांग को उठाता है। प्रेमचंद के काल की पत्रकारिता एक हथियार के रूप में सामने आती है,जो साम्राज्यवादी शक्तियों से बराबर मुक़ाबला कर रही है, उसके केन्द्र में आज़ादी का सपना है, समाज के उत्थान और विकास की कामना है,पूंजीवादी सभ्यता के प्रति सर्वहारा वर्ग के हितों की आकांक्षा है, राष्ट्रवादी भावना का प्रसार है,देशीवाद का बोलबाला है,ग्रामीण संस्कृति-समाज की समस्याओं का मुद्दा है। आज पत्रकारिता या इन माध्यमों का इस प्रकार का निर्वाह नहीं रह गया है, मीडिया का सारा केन्द्र अब आर्थिक सुदृढ़ता,प्रसिद्धि और प्रतियोगिता की अंधी दौड़ ने ले लिया है। आज पत्रकारिता अपने केन्द्र में मानव मुक्ति की कामना को सँजोकर नहीं रखती है, बल्कि आर्थिकता को रखकर चल रही है। आज भी हिन्दी के लेखक ही यह काम एक दायित्व के साथ कर सकते हैं। हिन्दी के लेखकों पर ज़ोर दे रहा हूँ, हिन्दी के लेखक इसलिए ये कार्य बेहतर तरीके से कर सकते हैं,क्योंकि वर्तमान में हिन्दी का पाठक आम पाठक होने के साथ बड़ी संख्या में है,हिन्दी भाषा को प्रतिनिधित्व करने वाली जनता आज व्यापक स्तर पर भारत ही नहीं,बल्कि विदेशों में भी फैली हुई है और मौजूद है।माध्यमों से इतर हिन्दी का लेखक आज भी बड़ी ईमानदारी से समाज में मानव मुक्ति की कामना को अपना स्वप्न सजाकर बैठा है,उसके केन्द्र में आर्थिकता नहीं और न ही वह पूंजीवादी सभ्यता से पोषित है। वह अब भी लेखन को एक हथियार बनाकर पूंजीवादी शक्तियों को अपनी पैनी नोंकों से भयभीत कर रहा है। वंचित जनता की माँग को साहित्य की विभिन्न विधाओं के माध्यम से समाज,राष्ट्र के समक्ष रख रहा है और सभी का ध्यान आकर्षित किए हुए है। यहाँ यह भी स्पष्ट हो जाना ज़रूरी है कि,वह इतना मुखर या आम जनता के बीच सुनाई और दिखाई देने वाला नहीं है जितना इलेक्ट्रानिक मीडिया है। आज इलेक्ट्रानिक मीडिया एक व्यवसाय,निकाय और खबरों को बेचने वाले धंधे के रूप में उभरकर आया है। अब यह माध्यम गलत लोगों के हाथों में ऐसा स्वतंत्र खंजर है,जिसे जब चाहे जिस दिशा में घुमाया जाए कत्ल अवश्य होगा। बदलते हुए माध्यमों ने जहां विकास के नए सोपान तय किए,वहीं वह अपने ही माध्यमों में अविश्वसनीयता और व्यावसायिकता ले आया है। प्रेमचंद के काल में यह दोनों बातें और स्थितियाँ नदारद हैं,वहाँ न तो व्यावसायिकता है और न ही अविश्वसनीयता का सवाल।
प्रेमचंद के साहित्य में स्त्री-पुरुषों की समस्या पर बराबर सवाल उठाए गए हैं, कई कहानियाँ और उपन्यास स्त्री दासता की मुक्ति के प्रबल समर्थक या यूं कहें कि,उन्हीं की मुक्ति की कामना के लिए सृजित साहित्य है। दलितों,शोषितों और स्त्री की समस्याओं को प्रेमचंद ने अपनी कथा का आधार बनाया और उनकी मुक्ति की कामना को उद्देश्य बनाकर कथासूत्र को पिरोया। बहुत कुछ अर्थों में आज दलित-शोषित और स्त्री की स्थितियों में सकारात्मक परिवर्तन आया है,लेकिन अब भी पूर्ण मुक्ति की कामना का स्वप्न अधूरा ही है, संवैधानिक तौर पर दलितों,शोषितों और स्त्री को आज अधिकारों की पूँजी मिल चुकी है। आज सवाल स्त्री-पुरुष के सम्बन्धों की पड़ताल का नहीं रहा गया है,न ही स्त्री की छवि का,न ही उसके धर्म,मर्यादा और जातिगत अस्मिता का है,आज का सवाल सबसे बड़ा यह नज़र आता है कि उसकी अस्मिता आज भी नकार दी जाती है,उसे आज भी सामंतवादी निगाहों से समाज में देखा जाता है। यह बात केवल स्त्री के साथ ही नहीं है, बल्कि दलितों और शोषितों के साथ अधिक मात्रा में देखी जा रही है। ऐसा नहीं है कि,शासन-प्रशासन इनके अधिकारों की पैरवी नहीं कर रहा हो या इन्हें अधिकार दिलाने या न्याय दिलाने में ढुलमुल रवैया अपना रहा हो,वह मुस्तैद है,सही मायनों में तो समाज ही इनके प्रति दोषी है,जो कि दुर्भावना को, अनधिकारपन की भावना को मन में पाले बैठा है। आज के साहित्य को समाज की गहराई में धँसकर उन स्थितियों को उजागर करना होगा,जो प्रकाश में नहीं आ रही हैं। कई कारणों की पड़ताल गहराई में जाकर करनी होगी और वास्तविक सच को बाहर लाना होगा। किसी सुरक्षित कमरे में या रोजी-रोटी की समस्या के हल होने के पश्चात की गई साहित्यिक जुगाली से समाज में सकारात्मक बदलाव की उम्मीद सरासर बेमानी है। लेखक का समाज के प्रति दायित्व कहीं व्यापक, गंभीर और जिम्मेदारियों से भरा हुआ है। अंतत: साहित्य कोई मनोरंजन की वस्तु तो है नहीं,और न ही कोई खुद को स्थापित करके प्रसिद्धि प्राप्त करने का माध्यम, आखिर समाज में साहित्य की सत्ता है और उसकी गंभीर जिम्मेदारियाँ हैं।
मुंशी प्रेमचंद का साहित्य भ्रष्टाचार का भी पर्दाफाश करता है,उसके निर्मूलन के उपाय भी सुझाता है। ऐसा नहीं कि भ्रष्टाचार आज की ही समस्या हो,यह समस्या प्रेमचंद के साहित्य में भी निरंतर देखने को मिलेगी। आज जीविका को किस स्तर पर चलाया जाए? सरकारी कार्यालय में नियुक्त हैं तो क्या बाकियों के साथ भ्रष्टाचार में योग देकर नौकरी बचाई जाए,या उदासीन होकर केवल यूं ही बुझे मन से जिया जाए! आए दिन भ्रष्टाचार के नए-नए रूप और तरीके हमारे समक्ष आ रहे हैं,व्यापमं का इतना बड़ा घोटाला आज सुर्खियों में है,कल कोई दूसरा सुर्खियों में होगा। सरकारी योजनाएँ हों या कोई विकास के लिए किए गए कार्य हों,हर तरफ भ्रष्टाचार का मुंह देखना पड़ रहा है। विद्यालय,सड़क या सार्वजनिक उपयोग के लिए कोई निर्माण हो,उसकी शुरुआत ही भ्रष्टाचार से होती है। अधिकारियों को रिश्वत दी जाती है,अपने नाम पर निविदा खुलवाई जाती है,फिर प्रतिशत के हिसाब से रुपया बाँटा जाता है,नक्शे पर सारे कामों को अंजाम दिया जाता है।
आज सबसे बड़ी लोकतान्त्रिक ज़रूरत जनता को उसकी की शक्ति को पहचान कराकर सही जनमत को तैयार करना है। जिस दिन जनता का जनमत सही तैयार होगा,राष्ट्र में सकारात्मक महाबदलाव की स्थितियों का निर्माण हो जाएगा। आज के लिए सबसे बड़ा ख़तरा सांप्रदायिकता के बढ़ते क़दमों में बेड़ियाँ डालने का है,जिस स्तर पर सांप्रदायिकता का प्रचार जिस दृष्टिकोण से जिस आयवरी टावर में बैठकर फैलाया जा रहा है,उसका परिणाम बहुत खतरनाक होने के साथ मानव जीवन के लिए शर्मनाक होगा। आज की ज़रूरत सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ने की है, लड़ने वाले कम हैं और लड़ाने वाले अधिक हैं,चारों ओर से जानवर-सी आक्रामक स्थितियों का निर्माण हो रहा है,मन-मस्तिष्क में सांप्रदायिकता आलोड़न ले रही है,भरे हुए पेटों द्वारा सांप्रदायिकता की आग जलाई गई है और उसकी आँच को और भी हवा देकर ऊँचा किया जा रहा है,बढ़ाया जा रहा है। आज सबसे बड़ी चुनौती प्रजातांत्रिक मूल्यों की रक्षा करते हुए राष्ट्रवाद की भावना को ऊपर लाना,साथ ही सांप्रदायिक-हिंसा और गलत प्रेरक शक्तियों की पहचान करते हुए उनके विरुद्ध खड़े होकर संघर्ष करने की है। मैं स्पष्ट कर रहा हूँ कि राष्ट्र किसी भी आर्थिक संकट से नहीं गुज़र रहा है,न ही कोई बड़ा युद्ध राष्ट्र किसी राष्ट्र के साथ लड़ रहा है और न ही कोई प्राकृतिक आपदा राष्ट्र में आई है। ऐसे शांति काल में क्यों न हम विकास की बात सोचें और सांप्रदायिक गलित शक्तियों का मुंह बंद करा दें। ऐसे प्रगति विरोधियों की सांप्रदायिकता की आग अपने आप ही बुझ जाएगी,जिसमें बेगुनाहों को जलाया जाता है। आज राष्ट्र में सांप्रदायिक सद्भाव का जनमत तैयार करने की गहन आवश्यकता है,जैसी आवश्यकता प्रेमचंद ने अपने काल में थी,उससे भी अधिक शक्ति लगाकर सद्भाव बनाए रखना होगा। किसी भी प्रकार की अफवाह से ख़ुद को बचाते हुए सांप्रदायिक वैमनस्य की बातों से हरेक को हरेक से दूर रहना चाहिए और किसी भी प्रकार से किसी चैनल के बहकावे में न आते हुए,अपनी आत्मा,मन-मस्तिष्क की आवाज़ को सुनना होगा। आखिर धर्म,संप्रदाय से कहीं अधिक ऊँचा राष्ट्र होता है,राष्ट्रवासी होते हैं,उनका जीवन महत्वपूर्ण होता है। एक लेखक केवल अपने शब्दों से हिंसा करने वाली शक्तियों की पहचान ही करा सकता है, हिंसा को रोकने की हिदायत ही दे सकता है,ह्रासशील प्रवतियों के खतरों से सावधान रहने की बात कर सकता है, गतिरोधों को उखाड़ फेंकने की मांग कर सकता है। लेखक ख़तरों की संभावनाओं की तलाश कर सकता है, उनसे बचे रहने का मार्ग दिखा सकता है, गलत ताक़तों के विरुद्ध खड़े रहकर संघर्ष की भावना का निर्माण कर सकता है। प्रेमचंद का साहित्य हमें ऐसी ही विचार-भावना का पाठ सिखाता है, उनके सारे पात्र संघर्ष की अवस्था के पात्र हैं,संघर्ष में भी विविधता है,कहीं आर्थिक है तो कहीं सामाजिक,कहीं सांप्रदायिक,कहीं राजनीतिक..लेकिन है संघर्ष की गाथा और आम आदमी के जीवन-संघर्ष की गाथा। किसी पूंजीपति, बुर्जुआ को कभी आमजन के लिए उसकी समस्याओं के लिए सड़क पर संघर्ष करते किसी ने देखा है? या किसी राजनेता को संकट के समय जनता के बीच सहायता करते देखा है? या किसी धर्म के ठेकेदार ने आमजन या जनता को सही मार्ग पर ले जाते हुए देखा है? सभी ने गुमराईयों को अपना हथियार बनाया है,एक काल्पनिक लोक का झूठा निर्माण किया है और समस्याओं को बढ़ाया है,यथार्थ तथा सच से दूर रखने की साजिश रची है,बिना चेतावनी के आम आदमी का क़त्ल किया है और करते जा रहे हैं। ऐसे भयानक समय में लेखक का दायित्व हो जाता है कि, अपने लेखन की धार को और पैना करे तथा गलत ताक़तों के विरुद्ध कई स्तरों पर संघर्ष करता हुआ प्रगति,विकास, राष्ट्रवाद को बढ़ावा देते हुए,फासीवादी और सांप्रदायिक शक्तियों के विरुद्ध खड़े होकर आमजन को अपने साथ जोड़कर नए पथ का निर्माण करे,जहां मानव जीवन को उन्नत,मूल्यवान,सुरक्षित और प्रगतिगामी बनाया जाए।
#डॉ. मोहसिन ख़ान
परिचय : डॉ. मोहसिन ख़ान (लेफ़्टिनेंट) नवाब भरुच(गुजरात)के निवासी हैं। आप १९७५ में जन्मे और मध्यप्रदेश(वर्तमान में महाराष्ट्र)के रतलाम से हैं। आपकी शैक्षणिक योग्यता शोधोपाधि(प्रगतिवादी समीक्षक और डॉ. रामविलास शर्मा) सहित एमफिल(दिनकर का कुरुक्षेत्र और मानवतावाद),एमए(हिन्दी)और बीए है। ‘नेट’ और ‘स्लेट’ जैसी प्रतियोगी परीक्षाएँ उत्तीर्ण करने के साथ ही अध्यापन(अलीबाग,जिला-रायगढ़ में हिन्दी विभागाध्यक्ष एवं शोध निदेशक और अन्य महाविद्यालयों में भी)का भी अनुभव है। 50 से अधिक शोध-पत्र व आलेख राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर के पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं। साथ ही ‘देवनागरी विमर्श (उज्जैन),
उपन्यास-‘त्रितय’,ग़ज़ल संग्रह- ‘सैलाब’और प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ, कविताएँ और गज़लें भी प्रकाशित हैं। बतौर रचनाकार आप हिन्दी साहित्य सम्मेलन(इलाहाबाद), राजभाषा संघर्ष समिति(नई दिल्ली), भारतीय हिन्दी परिषद(इलाहाबाद) एवं (उ.प्र. मालव नागरी लिपि अनुसंधान केन्द्र(उज्जैन,म.प्र.)आदि से भी जुड़े हुए हैं। कई साहित्यिक कार्यक्रम सफलता से सम्पन्न करा चुके हैं,जिसमें नाट्य रूपान्तरण एवं मंचन के रुप में प्रेमचंद की तीन कहानियों का निर्देशन विशेष है। अन्य गतिविधियों में एनसीसी अधिकारी-पद लेफ्टिनेंट,आल इंडिया परेड कमांड में सम्मानित होना है। इसी सक्रियता के चलते सेना द्वारा प्रशस्तियाँ एवं सम्मान के अलावा कुलाबा गौरव सम्मान,बाबा साहेब आम्बेडकर फैलोशिप दलित साहित्य अकादमी (दिल्ली)से भी सम्मान पाया है। समाजसेवा में अग्रणी डॉ.खान की संप्रति फिलहाल हिन्दी विभागाध्यक्ष एवं शोध निदेशक तथा एनसीसी अधिकारी (अलीबाग)की है।
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प्रेमचंद के बहाने सांप्रतिक खतरों से सावधान करने की लेखकीय कोशिश सराहनीय हैँ।
Yah aalekh bahut mahatwapurn hai