बुढ़ापा…

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sunil khinchi
सांझ के रवि की तरह ढलकर मैं सो गया हूं।
लगता है जैसे अब मैं बूढा हो गया हूं॥
तन का उत्साह भी खत्म-सा होने लगा है।
मन पुष्प फिर से बचपन बीज बोने लगा है॥
नयनों का प्रकाश भी अब हो कम-सा गया है।
सांसों का सैलाब भी अब थम-सा गया है॥
भूख-प्यास भी नहीं लगती अब पहले की तरह।
हाल मन अब हो गया है मेरा कुछ इस तरह॥
जीभ दांतों ने भी अब मेरा साथ छोड़ दिया।
जवानी की हवा ने भी मुझसे मुंह मोड़ लिया॥
भोजन खाने-पीने में दर्द पाने लगा हूं।
दूध में दलिया घोलकर अब खाने लगा हूं॥
लगे जैसे कान भी अब बहरे हो गए हैं।
गालों में भी गड्डे अब गहरे हो गए हैं॥
जवानी वाला गुस्सा व किस्सा गुम हो गया।
इशारे समझाने का असर भी कम हो गया॥
वक्त के साथ साथ मेरी उमर ढल-सी गई है।
जवानी की मौज-मस्ती अब मर-सी गई है॥
अब खुद की गलतियों को खुद ही गिनने लगता हूं।
सोचता हूं अतीत को तो, मन में मरने लगता हूं॥
मान लिया एक दिन चले जाना है छोड़कर।
राम प्यारा हो जाना है सबसे मुंह मोड़कर॥
अनुभवों के पन्ने पलटते मैं खो गया हूं।
लगता है जैसे अब मैं बूढ़ा हो गया हूं॥
                                                                                                         #सुनील खींची
परिचय : सुनील खींची काव्य पाठ भी करते हैं।आपकी शैक्षिक योग्यता बीएड और स्नातकोत्तर(अंग्रेजी साहित्य) है। निवासी खेड़ली रेल (जिला-अलवर, राजस्थान) में है।

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डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

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