तपती हूँ मैं जलती हूँ मैं,
होकर निष्प्राण जैसे मरती हूँ मैं..
रौंदकर मेरे सम्पूर्ण विस्तार को,
बना डाला है मुझको अभागिन धरा।
कर दिया खोखला तूने मेरी देह को,
क्यूँ बनाया है बंजर मेरी कोख को..
करके दोहन मेरा छीन गहना लिया,
पेड़-पौधों को भी तूने तनहा किया।
पत्ते-पत्ते पे जिंदा हरापन जो है,
मेरे अनुराग की ही रवानी से है..
नदिया-पोखर न सूख जाए कहीं
इसलिए होश में तुम आओ अभी।
छीन लूँगी तुमसे तुम्हारी मैं मादकता,
मेरे अंदर भी हैं कई ज्वालामुखी..
जला दूँगी मैं सारे मनुज प्राण को,
मिटा दूँगी तुम्हारे अभिमान को।
सोंच लो ग़र ऐसा हो भी गया,
सारी सृष्टि झुलस नष्ट हो जाएगी..
समा जाओगे तुम काल के आगोश में,
बच न पाएगा कोई मेरे कोप से॥
परिचय : १९८९ में जन्मी गुंजन गुप्ता ने कम समय में ही अच्छी लेखनी कायम की है। आप प्रतापगढ़ (उ.प्र) की निवासी हैं। आपकी शिक्षा एमए द्वय (हिन्दी,समाजशास्त्र), बीएड और यूजीसी ‘नेट’ हिन्दी त्रय है। प्रकाशित साहित्य में साझा काव्य संग्रह-जीवन्त हस्ताक्षर,काव्य अमृत, कवियों की मधुशाला है। कई पत्र-पत्रिकाओं में आपकी रचनाएँ प्रकाशित होती हैं। आपके प्रकाशाधीन साहित्य में समवेत संकलन-नारी काव्य सागर,भारत के श्रेष्ठ कवि-कवियित्रियां और बूँद-बूँद रक्त हैं। समवेत कहानी संग्रह-मधुबन भी आपके खाते में है तो,अमृत सम्मान एवं साहित्य सोम सम्मान भी आपको मिला है।
सटीक एवम् समसामयिक रचना के लिए बधाई गुंजन जी