बन विषधर डसते हैं…

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sanjeev
हमने
बोए थे गुलाब,
क्यों
नागफनी उग आई ?
दूध पिलाकर
जिनको पाला,
बन विषधर
डसते हैं,
जिन पर
पैर जमा
बढ़ना था,
वे पत्थर
धँसते हैं।
माँगी रोटी,
छीन लँगोटी
जनप्रतिनिधि
हँसते हैं।
जिनको
जनसेवा
करनी थी,
वे मेवा
फ़ंकते हैं।!
सपने
बोने थे जनाब
पर
नींद कहो कब आई?
सूत कातकर
हमने पाई
आज़ादी,
दावा है।
जनगण
का हित मिल
साधेंगे
झूठा हर
वादा है।
वीर शहीदों
को भूले,
धन-सत्ता नित
भजते हैं।
जिनको
देश नया
गढ़ना था,
वे निज घर
भरते हैं।
जनता
ने पूछा हिसाब
क्यों
तुमने आँख चुराई?
हैं बलिदानों
के वारिस ये,
जमी जमीं
पर नजरें।
गिरवी
रखें छीन
कर धरती
सेठों-सँग
हँस पसरें।
कमल कर रहा
चीरहरण
खेती कुररी
-सी बिलखे।
श्रम को
श्रेय जहाँ
मिलना था
कृषक क्षुब्ध
मरते हैं।
गढ़ ही
दे इतिहास नया,
अब
‘आप’ न हो रुसवाई।
                                                           #संजीव वर्मा सलिल

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